Tuesday, March 29, 2016

गौरैया

फुदक फुदककर चली आती थी बेख़ौफ़
आँगन में सूखते अनाज में से
चुगने अपने हिस्से के चन्द दाने!
आई है आज भी
फूस की मड़ैया और नीम के पेंड़ की तलाश में,
आखिर हारकर बैठ गयी है,
कंकरीट की फर्श पर रखे गमले में लगे कैक्टस पर!
आज उसकी चहचहाहट में
नहीं है पहले सा संगीत,
नहीं है कीर्तन का सा आभास,
बल्कि है वेदना एक तड़प!!!
शहरी ढांचे के अंधानुकरण से
बँट गए परिवार,
कट गए लोग संस्कारों से,
लुप्त हो गए आँगन!
अब! अति महत्वपूर्ण दिखने के इच्छुक हम प्रदर्शनप्रिय, सुविधाभोगी लोग,
नहीं सुखाते हैं
अनाज छतों पर!
खरीद लेते हैं आंटा-चावल के पैकेट,
गौरैया भूखी है!
नहीं पालते हैं मवेशी
नहीं भरते हैं उनके पीने को कुंडों में पानी,
गौरैया प्यासी है!
कीटनाशकों के प्रयोग ने कीटों को पहले ही किया ख़त्म,
गौरैया उदास है!
अरे! यह क्या?
किस डर से उड़कर भाग चली?
क्या? किसी ने प्यार से किसी बेटी को गौरैया कहा है!!!
गौरैया असुरक्षित है!
गौरैया उपेक्षित है!
गौरिया भूखी है!!
गौरैया प्यासी है!!

गौरैया बचाएं; सृष्टि बचाये!!!
निवेदक
©विजय शुक्ल बादल 9454943854