Sunday, May 5, 2024

कहानी: काकी का वोट

"देखो काकी, अपने परिवार की खुशी के लिए गोकुल को जन्म देने आप घर की दहलीज पार कर अस्पताल गईं थीं न, वैसे ही लोकतंत्र के पावन पर्व चुनाव को सफल बनाने के लिए मजबूत और योग्य सरकार चुनने के लिए अपना वोट डालने घर से निकलकर मतदान केंद्र तक जाना ही होगा। अगर आधी आबादी मतदान वाले दिन घर पर बैठ गई तो अयोग्य नेतृत्व पाकर देश हार जाएगा।"

    लगभग 2 साल बाद गुनगुन को अपने सामने देखकर काकी खुशी से फूली नहीं समाई। गुनगुन के गालों को अपने दोनों हाथों में भरकर बोली, "अरे वाह! मेरी गुन्नू कितनी बड़ी हो गई है और सुंदर भी।" गुनगुन मुस्कुरा दी। पिछली बार वह विधानसभा चुनाव में मतदान करने जब गांव आई थी, तभी काकी से मिली थी। दरअसल, गुनगुन का बचपन संयुक्त परिवार में काका–काकी, ताऊ–ताई के प्यार और दुलार के बीच शरारतें करते ही बीता था। आज भले ही वह दिल्ली के एक प्रतिष्ठित लॉ कॉलेज से एलएलबी के आखिरी साल में पढ़ाई कर रही है, पर काकी के लिए जैसे वह आज भी नन्ही गुन्नू ही है। 
  
  काकी दुलराते हुए बोली, "बिटिया तुम्हारी पसंद का हलवा बना रही हूँ। बैठो अभी खिलाती हूँ। काकी ने गुनगुन को आंगन में पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। बैठते हुए गुनगुन ने पूछा, "पर काकी आज तो 13 मई है, लोकसभा चुनाव है। आप यहाँ किचन में क्या कर रही हैं?" काकी ने बेपरवाही से उत्तर दिया, हाँ तो? और कौन सा ऑफिस खुला है हमारे लिए?" गुनगुन समझाते हुए बोली, " अरे काकी, मेरा मतलब है वोट डालने नहीं गईं आप?" काकी , "तुम्हरे गुनगुन पर कम हलुए पर ज्यादा ध्यान देते हुए बोलती जा रही थी, "तुम्हरे काका  और भाई गोकुल गए हैं न, वोट डालने, लौट कर आएंगे तो उन्हें गर्मागरम हलुआ खिलाऊंगी। तुम भी खाना, बस तैयार ही है।" गुनगुन ने आश्चर्य से कहा, "पर काकी वोट तो आपका भी है। आपको भी तो वोट डालने जाना चाहिए। मैं तो 500 किलोमीटर दूर दिल्ली से चलकर वोट डालने आई हूं। सुबह-सुबह वोट डाल भी आई!" गुनगुन अपनी तर्जनी उंगली पर लोकतंत्र की स्याही देखकर गर्व का अनुभव कर रही थी।
 काकी ने गुनगुन की तर्जनी पर काली स्याही का निशान देखा और फिर जैसे कुछ सोचते हुए कड़ाही में पकते हलवे को कर्छी से चलाते हुए बोली, "हाँ बिटिया! वोट है तो हमारा भी, वोट वाली पर्ची भी आई थी। पर काका तुम्हारे डालने गए हैं न! अब हम इस उम्र में हम कहा कहाँ वोट डालने जाएं। वैसे भी तुम्हरे काका और हमारे बीच काम पहिले से ही बटे हुए हैं। बाहर के सारे काम तुम्हारा काका करते हैं और घर के सारे काम हम।"  गुनगुन काकी का अजब गजब तर्क और ठिठौली सुनकर अपने बचपन के पुराने शरारती अंदाज़ में बोली, "काकी एक बात बताओगी; जब छोटा भाई गोकुल जन्म लेने वाला था और तुम बीमार पड़ी थी। तब अस्पताल तुम ही गई थी, या तुम्हारी जगह काका ही अस्पताल में भर्ती होकर गोकुल को जन्म दे दिए थे?" काकी मुस्कुरा कर बोली, "हाय दैया! कैसी बात करती हो बिटिया? पढ़ लिखि कै पगला गई हो का? तुम्हारे काका कैसे गोकुल को जन्म दे सकते थे, वह तो हमारी ही कोख से जन्म ले सकता था न।" गुनगुन काकी की इस बात पर समझाते हुए बोली, " देखो काकी, अपने परिवार की खुशी के लिए गोकुल को जन्म देने आप घर की दहलीज पार कर अस्पताल गईं थीं न, वैसे ही लोकतंत्र के पावन पर्व चुनाव को सफल बनाने के लिए मजबूत और योग्य सरकार चुनने के लिए अपना वोट डालने घर से निकलकर मतदान केंद्र तक जाना ही होगा। अगर आधी आबादी मतदान वाले दिन घर पर बैठ गई तो अयोग्य नेतृत्व पाकर देश हार जाएगा।" काकी गंभीर होकर बोली, "का कह रही हो बिटिया, ऐसे कैसे देश हार जायेगा? जिसकी बेटी तुम जैसी हो ऐसा हमारा देश कभी भी नहीं हार सकता। हलुआ बनकर तैयार है, तुम्हरे काका, तुम्हरे भाई  गोकुल और तुम को हलवा अब वोट डालने के बाद, लौट के ही खिलाएंगे।  ए बिटिया, चलो, अब पहिले हमका मतदान करवा लाओ।" गुनगुन काकी की ये बात सुनकर एकदम चहक उठी, " हाँ काकी, मैं अभी स्कूटी लेकर आती हूँ। फिर लौटकर आपके हाथ का स्वादिष्ट हलवा खाते हैं।" इतना कहकर वह गुनगुनाती हुई उछलती कूदती निकल गई, "पहले हम मतदान करेंगे, बाद उसके जलपान करेंगे।"

लगभग 1 घंटे के बाद गुनगुन की जुबान पर स्वादिष्ट हलुआ विद्यमान था और काकी की तर्जनी पर लोकतंत्र की स्याही शोभायमान हो रही थी। लोकतंत्र के यज्ञ में अपने वोट की आहुति देकर काकी को अलग ही संतुष्टि का अनुभव हो रहा था।
—डॉ०विजय शुक्ल बादल
काकी का वोट




Saturday, April 13, 2024

कहानी: पूर्वाग्रह

64 विषयों में मास्टर, 32 डिग्रियों के धारक, 9 भाषाओं के ज्ञाता, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से 8 साल की पढ़ाई मात्र 2 साल 3 महीने में पूर्ण करने वाले भीमराव अंबेडकर जिनकी 40 पुस्तके और उनके दर्शन और चिंतन पर लगभग 18 पुस्तके उपलब्ध हैं, यदि आपको जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगते हैं तो एक बार उनकी पुस्तक "द एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट (जाति का विनाश)" पढ़ लेनी चाहिए!"

4 घंटे संविधान की लगातार पढ़ाई के बाद एक कप चाय की तलब से राहुल अपने रूम से चंदन चाचा की चाय की टपरी पर पहुंचा ही था कि उसने देखा वहां तो चाय पर चर्चा की पूरी महफिल जमी हुई है। गर्म चाय की चुस्कियों के बीच रोहित, अनुराग, शोभना के बीच गरमागरम बहस जारी थी। ज्योति बोल रही थी, " ...उन्हें उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार अवसर नहीं दिए गए। तुम्हे पता है रोहित, बाबा साहब अपने समय के सबसे पढ़े लिखे राजनेता थे, उनके जैसा कोई नहीं हुआ?" राहुल को आता देखकर शायद उसका ध्यान खींचते हुए रोहित बोला , " कोई किसी के जैसा नहीं होता ज्योति। हां ठीक है माना भीमराव अंबेडकर जी अपने समय के सबसे पढ़े लिखे नेता थे, पर क्या वह खुद अपने बचपन के चन्द कड़वे अनुभवों से उपजे जातिगत पूर्वाग्रहों से बच सके थे?" तभी शोभना बोल उठी, "हां यार मैंने कहीं पढ़ा था कि पहले स्कूल में बाबा साहेब का नाम उनके गांव आंबडवे के आधार पर भिवा रामजी आंबडवेकर लिखवाया गया था जिसे उनके एक ब्राह्मण शिक्षक...क्या नाम था उनका? हां, कृष्णा केशव आंबेडकर...उन्होंने आंबडवेकर कठिन उपनाम हटाकर अपना उपनाम अंबेडकर कर दिया था। मुझे समझ नहीं आता इतना पढ़ा–लिखा आदमी जिनका अंबेडकर उप नाम तक एक ब्राह्मण शिक्षक के द्वारा दिया गया, जिनकी शिक्षा के लिए सवर्णों के द्वारा समर्थन और छात्रवृत्ति दी गई, ऐसे सभी सवर्णों पर अंबेडकर जैसा उच्च शिक्षित व्यक्ति कैसे एक तरफ से अत्याचार का आरोप लगा सकता है?" हाँ में हाँ मिलाते हुए अनुराग बोला, " मैं अंबेडकर जी के योगदान का सम्मान करता हूं पर मुझे भीमराव अंबेडकर जी को संविधान का जनक कहा जाना समझ नहीं आता है। क्या संविधान अकेले भीमराव जी ने ही लिख डाला था? हद हो गई!" यह सब सुनकर अब राहुल से रहा नहीं गया। अपनी चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए थोड़ा सम्हलकर बोल उठा, " आप लोग बाबा साहेब के जातिगत पूर्वाग्रहों की बात कर रहे हैं, वह भी अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर भी एक इंसान थे। हर इंसान का व्यक्तित्व उसके जन्मस्थान, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिवेश, प्रारंभिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा, स्वाध्याय आदि पर आधारित होता ही है। अपने पूर्वाग्रहों से पूर्ण मुक्त कोई नहीं होता। रही बात बाबा साहेब के जातिगत पूर्वाग्रहों के मूल्यांकन की, तो मैं समझता हूं कि हम जैसे स्वयं के अनेक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त विद्यार्थी इसकी योग्यता नहीं रखते। हाँ, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का उचित मूल्यांकन करने हेतु हमें उन के साहित्य का स्वाध्याय बिना किसी पूर्वाग्रह के करना होगा। उनका एक कथन तो आप लोगों ने भी सुना ही होगा, " शिक्षा सिंहिनी का दूध है, जो पिएगा दहाड़ेगा।" तो अब ध्यान से सुनिए— 64 विषयों में मास्टर, 32 डिग्रियों के धारक, 9 भाषाओं के ज्ञाता, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से 8 साल की पढ़ाई मात्र 2 साल 3 महीने में पूर्ण करने वाले भीमराव अंबेडकर जिनकी 40 पुस्तके और उनके दर्शन और चिंतन पर लगभग 18 पुस्तके उपलब्ध हैं, यदि आपको जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगते हैं तो एक बार उनकी पुस्तक "द एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट (जाति का विनाश)" पढ़ लेनी चाहिए" चाय की टपरी पर ऐसा लेक्चर सुनना पड़ जायेगा ये रोहित, ज्योति अनुराग और शोभना ने सोचा भी न था। सब बिना कुछ बोले, खुले मुंह से राहुल की ओर एकदक देख रहे थे। राहुल कुछ सोचते हुए बोला, "समय ज्यादा नहीं है, अंबेडकर साहित्य फिनिश करना है आज मुझे। हाँ अनुराग, संविधान अकेले बाबा साहब ने लिखा ऐसा तो नहीं, पर संविधान निर्माण में उनका योगदान क्या रहा है इसका अनुमान लगाने के लिए संविधान सभा में, मसौदा समिति के सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी का यह लिखित कथन मैंने आज सुबह ही पढ़ा, तुम्हे इस पर ध्यान देना चाहिए।" राहुल ने अपने मोबाइल पर डाउनलोडेड ईबुक से पढ़ना शुरू किया,
"अध्यक्ष महोदय, मैं सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आम्बेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है। मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं।" उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था, वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया। सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है। आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था। एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था। एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था, और उस सीमा तक एक शून्य था। एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी। इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आम्बेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं। इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है।"
यह कथन सुनाकर राहुल बिना किसी की प्रतिक्रिया की अपेक्षा किए चुपचाप चाय के 7 रुपए चंदन चाचा को देकर रूम की ओर चल पड़ा। ज्योति बोली, "अरे राहुल रुको, ज़रा सुनो तो!" पर राहुल किसी की ओर ध्यान न देकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चुका था, उसे "संविधान निर्माण में बाबा साहब की भूमिका" विषय पर निबंध लेखन का अभ्यास करना था। 
— विजय शुक्ल बादल