Friday, September 1, 2017

एक मुक्तक

क़फ़स में कबसे इक परिंदा है!
जाने किस बात पे शर्मिंदा है?
वो जो इंसाँ था मर गया कल शब,
वो जो नेता है वही ज़िंदा है।।

नेताओ और बाबाओं से छुटकारे का फौरी समाधान

मुझे तो लगता है कि कम से कम भारत के इन कथित नेताओं और बाबाओ को एक बड़े से, सारी सुख-सुविधाओं से युक्त पानी के जहाज़ में भरकर हमेशा के लिए बीच समंदर छोड़ देना चाहिए! देश को ख़ुद के मनहूस साये से आज़ाद करने के बदले में इन नेताओं के लिए आजीवन इतनी सुविधाएं तो बनती ही हैं। देश का नेतृत्व प्रखर बुद्धि वाले कर्मठ ईमानदार युवाओं को मिले...जाति, धर्म, भाषा जैसे वर्तमान संकुचित धारणाओं से निकल कर राजनीति समस्त प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों के समुचित सदुपयोग पर केंद्रित हो। ईमानदार युवाओं द्धारा, ईमानदारों के लिए बेईमानों पर शासन!

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न्रिशंसता; लखीमपुर युवक ने बच्ची कलाई काट डाली...

काटकर कमसिन कलाई, क़त्ल कर क़िरदार का,
रूप धर नर का, नशे मे घूमते हैं नरपिशाच...!
~विजय शुक्ल बादल
 
कैसे कुछ बोले गूंगों की बस्ती है,
और बहरे सरकार चलाने वाले हैं!
मनमाने मुसिफ़, फ़रियादी बेबस हैं,
न्याय का शव क्षत-विक्षत, सच पर ताले हैं!!


अंधभक्त...बाबा के दर पर

आज युवाओं में धर्म के नाम पर फैले आडम्बर के प्रति कहीं ज़्यादा गुस्से की ज़रूरत है...कुछ तो करना होगा! पर नई पीढ़ी अपना कीमती गुस्सा सोशल मीडिया पर बाबाओं को अपशब्द कहने और धर्मभीरु श्रद्धालुओं की कटु एवं कभी कभी अभद्र आलोचना करने में ज़ाया करती नज़र आ रही है। नई पीढ़ी वही कर रही है जैसी उसकी कंडीशनिंग की गई है...चन्द चतुर सुजान किंतु स्वार्थी लोगों द्वारा ऐसा कर के दिखाया गया और हमारे युवा आक्रोशव्यक्त करने के इसी तरीक़े को ले उड़े! ज़रूरत है इस गुस्से का सदुपयोग करने की ताकि केवल शोर न हो, कुछ संदेश पहुँचे! पर दुर्भाग्यपूर्ण है, नई पीढ़ी के युवाओं को सोशल मीडिया के दुरुपयोग के उथले तात्कालिक लाभों के आगे दूरगामी ख़तरे नज़र नही आ रहे! यहाँ तो जैसे हर कोई अपना नया झंडा गढ़ने की जुगत में है; सोशल मीडिया झंडा ऊंचा करने वालों का जमावड़ा भर बनकर रह गया है! झंडे बदलते रहते हैं बस..! सोशल मीडिया की ताक़त का सदुपयोग करने का ज़िम्मा चंद लोग ही सम्हाले नज़र आते हैं, ..ऐसे में हर युवा का कर्तव्य है कि हम समय जितना भी दे सकें, उन चंद लोगों में शामिल होने की कोशिश रहे!
और हाँ, एक बात और! मुझे लगता है कि हमारा काम है कि दूसरों का जो व्यवहार हमें उचित न लगे, वो व्यवहार से हम स्वयं को विलग रखें और सदैव उचित व्यवहारयुक्त आचरण ही करें! आवश्यकता पड़ने पर अपनी बात संसदीय भाषा मे ही सामने वाले के समक्ष रखें! आचरण की पवित्रता से समृद्ध, स्नेह व सद्भावयुक्त बात धीरे से भी कह दी जाए तो अंगुलिमानों को भी संत बनाने की क्षमता रखती है...कुत्सित बुद्धि और आचरण करने वालों के मुख से निकले कथित धार्मिक विचार धर्म के भी नाम पर लोगों को उपद्रवी ही बनाते दिखते आये है! अतएव कथनी को करनी का समर्थन अवश्य चाहिए अन्यथा अत्यंत सुंदर व आध्यात्मिक सद्विचारों वाले संत भी आसाराम जैसे पतित ही सिद्ध होते रहेंगे..!