आज युवाओं में धर्म के नाम पर फैले आडम्बर के प्रति कहीं ज़्यादा गुस्से
की ज़रूरत है...कुछ तो करना होगा! पर नई पीढ़ी अपना कीमती गुस्सा सोशल मीडिया
पर बाबाओं को अपशब्द कहने और धर्मभीरु श्रद्धालुओं की कटु एवं कभी कभी
अभद्र आलोचना करने में ज़ाया करती नज़र आ रही है। नई पीढ़ी वही कर रही है
जैसी उसकी कंडीशनिंग की गई है...चन्द चतुर सुजान किंतु स्वार्थी लोगों
द्वारा ऐसा कर के दिखाया गया और हमारे युवा आक्रोशव्यक्त करने के इसी तरीक़े
को ले उड़े! ज़रूरत है इस गुस्से का सदुपयोग करने की ताकि केवल शोर
न हो, कुछ संदेश पहुँचे! पर दुर्भाग्यपूर्ण है, नई पीढ़ी के युवाओं को
सोशल मीडिया के दुरुपयोग के उथले तात्कालिक लाभों के आगे दूरगामी ख़तरे नज़र
नही आ रहे! यहाँ तो जैसे हर कोई अपना नया झंडा गढ़ने की जुगत में है; सोशल
मीडिया झंडा ऊंचा करने वालों का जमावड़ा भर बनकर रह गया है! झंडे बदलते रहते
हैं बस..! सोशल मीडिया की ताक़त का सदुपयोग करने का ज़िम्मा चंद लोग ही
सम्हाले नज़र आते हैं, ..ऐसे में हर युवा का कर्तव्य है कि हम समय जितना भी
दे सकें, उन चंद लोगों में शामिल होने की कोशिश रहे!
और हाँ, एक बात और! मुझे लगता है कि हमारा काम है कि दूसरों का जो
व्यवहार हमें उचित न लगे, वो व्यवहार से हम स्वयं को विलग रखें और सदैव
उचित व्यवहारयुक्त आचरण ही करें! आवश्यकता पड़ने पर अपनी बात संसदीय भाषा मे
ही सामने वाले के समक्ष रखें! आचरण की पवित्रता से समृद्ध, स्नेह व
सद्भावयुक्त बात धीरे से भी कह दी जाए तो अंगुलिमानों को भी संत बनाने की
क्षमता रखती है...कुत्सित बुद्धि और आचरण करने वालों के मुख से निकले कथित
धार्मिक विचार धर्म के भी नाम पर लोगों को उपद्रवी ही बनाते दिखते आये है!
अतएव कथनी को करनी का समर्थन अवश्य चाहिए अन्यथा अत्यंत सुंदर व आध्यात्मिक
सद्विचारों वाले संत भी आसाराम जैसे पतित ही सिद्ध होते रहेंगे..!
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