Sunday, April 6, 2025

चन्द्रकला

 कविता की एक नई विधा "चन्द्रकला" जिसमें कुल 21 पंक्तियाँ होती हैं। प्रथम पंक्ति एक शब्द की, दूसरी 2 शब्दों की और इसी तरह प्रत्येक पंक्ति एक–एक शब्द बढ़कर 11वीं पंक्ति 11 शब्दों की हो जाती है। 11वीं पंक्ति के पश्चात 12 वीं पंक्ति से पुनः एक – एक शब्द घटता जाता है और अंतिम 21 वीं पंक्ति मात्र 1 शब्द की राह जाती है! स्वयं ही परीक्षण कीजिए:


एक

चिड़िया की

बेसाख्ता चहचहाहट को,

चाहिए पिंजरे में पानी?

चुगने को दाने, सुरक्षित आसरा?

नहीं, चिड़िया को चाहिए खुला आसमान!

ताकि खोल सके अपने मज़बूत पंखों को!

भर सके परवाज़ आसमान की असीम ऊंचाइयों तक!

बता सके ज़माने को कि उसे प्यारी है अपनी आज़ादी!

आज़ादी, अभिव्यक्ति के खुले आसमान में एक उन्मुक्त उड़ान भरने की!

आज़ादी, अपने आशियाने को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ गढ़ने की।

मगर आज़ादी मुफ़्त में मिलती नहीं,  बलिदान मांगती है।

आज़ादी बदले में आशियाना और जान मांगती है।

उड़ती चिड़िया पर सबकी निगाह होती हैं।

तीरों की बौछार बेपनाह होती है।

माना आजाद उड़ान कठिन है।

सहना अपमान कठिन है!

चुनकर आजाद उड़ान

इठलाती है

चिड़िया!

© डॉ०विजय शुक्ल बादल

Sunday, May 5, 2024

कहानी: काकी का वोट

"देखो काकी, अपने परिवार की खुशी के लिए गोकुल को जन्म देने आप घर की दहलीज पार कर अस्पताल गईं थीं न, वैसे ही लोकतंत्र के पावन पर्व चुनाव को सफल बनाने के लिए मजबूत और योग्य सरकार चुनने के लिए अपना वोट डालने घर से निकलकर मतदान केंद्र तक जाना ही होगा। अगर आधी आबादी मतदान वाले दिन घर पर बैठ गई तो अयोग्य नेतृत्व पाकर देश हार जाएगा।"

    लगभग 2 साल बाद गुनगुन को अपने सामने देखकर काकी खुशी से फूली नहीं समाई। गुनगुन के गालों को अपने दोनों हाथों में भरकर बोली, "अरे वाह! मेरी गुन्नू कितनी बड़ी हो गई है और सुंदर भी।" गुनगुन मुस्कुरा दी। पिछली बार वह विधानसभा चुनाव में मतदान करने जब गांव आई थी, तभी काकी से मिली थी। दरअसल, गुनगुन का बचपन संयुक्त परिवार में काका–काकी, ताऊ–ताई के प्यार और दुलार के बीच शरारतें करते ही बीता था। आज भले ही वह दिल्ली के एक प्रतिष्ठित लॉ कॉलेज से एलएलबी के आखिरी साल में पढ़ाई कर रही है, पर काकी के लिए जैसे वह आज भी नन्ही गुन्नू ही है। 
  
  काकी दुलराते हुए बोली, "बिटिया तुम्हारी पसंद का हलवा बना रही हूँ। बैठो अभी खिलाती हूँ। काकी ने गुनगुन को आंगन में पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। बैठते हुए गुनगुन ने पूछा, "पर काकी आज तो 13 मई है, लोकसभा चुनाव है। आप यहाँ किचन में क्या कर रही हैं?" काकी ने बेपरवाही से उत्तर दिया, हाँ तो? और कौन सा ऑफिस खुला है हमारे लिए?" गुनगुन समझाते हुए बोली, " अरे काकी, मेरा मतलब है वोट डालने नहीं गईं आप?" काकी , "तुम्हरे गुनगुन पर कम हलुए पर ज्यादा ध्यान देते हुए बोलती जा रही थी, "तुम्हरे काका  और भाई गोकुल गए हैं न, वोट डालने, लौट कर आएंगे तो उन्हें गर्मागरम हलुआ खिलाऊंगी। तुम भी खाना, बस तैयार ही है।" गुनगुन ने आश्चर्य से कहा, "पर काकी वोट तो आपका भी है। आपको भी तो वोट डालने जाना चाहिए। मैं तो 500 किलोमीटर दूर दिल्ली से चलकर वोट डालने आई हूं। सुबह-सुबह वोट डाल भी आई!" गुनगुन अपनी तर्जनी उंगली पर लोकतंत्र की स्याही देखकर गर्व का अनुभव कर रही थी।
 काकी ने गुनगुन की तर्जनी पर काली स्याही का निशान देखा और फिर जैसे कुछ सोचते हुए कड़ाही में पकते हलवे को कर्छी से चलाते हुए बोली, "हाँ बिटिया! वोट है तो हमारा भी, वोट वाली पर्ची भी आई थी। पर काका तुम्हारे डालने गए हैं न! अब हम इस उम्र में हम कहा कहाँ वोट डालने जाएं। वैसे भी तुम्हरे काका और हमारे बीच काम पहिले से ही बटे हुए हैं। बाहर के सारे काम तुम्हारा काका करते हैं और घर के सारे काम हम।"  गुनगुन काकी का अजब गजब तर्क और ठिठौली सुनकर अपने बचपन के पुराने शरारती अंदाज़ में बोली, "काकी एक बात बताओगी; जब छोटा भाई गोकुल जन्म लेने वाला था और तुम बीमार पड़ी थी। तब अस्पताल तुम ही गई थी, या तुम्हारी जगह काका ही अस्पताल में भर्ती होकर गोकुल को जन्म दे दिए थे?" काकी मुस्कुरा कर बोली, "हाय दैया! कैसी बात करती हो बिटिया? पढ़ लिखि कै पगला गई हो का? तुम्हारे काका कैसे गोकुल को जन्म दे सकते थे, वह तो हमारी ही कोख से जन्म ले सकता था न।" गुनगुन काकी की इस बात पर समझाते हुए बोली, " देखो काकी, अपने परिवार की खुशी के लिए गोकुल को जन्म देने आप घर की दहलीज पार कर अस्पताल गईं थीं न, वैसे ही लोकतंत्र के पावन पर्व चुनाव को सफल बनाने के लिए मजबूत और योग्य सरकार चुनने के लिए अपना वोट डालने घर से निकलकर मतदान केंद्र तक जाना ही होगा। अगर आधी आबादी मतदान वाले दिन घर पर बैठ गई तो अयोग्य नेतृत्व पाकर देश हार जाएगा।" काकी गंभीर होकर बोली, "का कह रही हो बिटिया, ऐसे कैसे देश हार जायेगा? जिसकी बेटी तुम जैसी हो ऐसा हमारा देश कभी भी नहीं हार सकता। हलुआ बनकर तैयार है, तुम्हरे काका, तुम्हरे भाई  गोकुल और तुम को हलवा अब वोट डालने के बाद, लौट के ही खिलाएंगे।  ए बिटिया, चलो, अब पहिले हमका मतदान करवा लाओ।" गुनगुन काकी की ये बात सुनकर एकदम चहक उठी, " हाँ काकी, मैं अभी स्कूटी लेकर आती हूँ। फिर लौटकर आपके हाथ का स्वादिष्ट हलवा खाते हैं।" इतना कहकर वह गुनगुनाती हुई उछलती कूदती निकल गई, "पहले हम मतदान करेंगे, बाद उसके जलपान करेंगे।"

लगभग 1 घंटे के बाद गुनगुन की जुबान पर स्वादिष्ट हलुआ विद्यमान था और काकी की तर्जनी पर लोकतंत्र की स्याही शोभायमान हो रही थी। लोकतंत्र के यज्ञ में अपने वोट की आहुति देकर काकी को अलग ही संतुष्टि का अनुभव हो रहा था।
—डॉ०विजय शुक्ल बादल
काकी का वोट




Saturday, April 13, 2024

कहानी: पूर्वाग्रह

64 विषयों में मास्टर, 32 डिग्रियों के धारक, 9 भाषाओं के ज्ञाता, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से 8 साल की पढ़ाई मात्र 2 साल 3 महीने में पूर्ण करने वाले भीमराव अंबेडकर जिनकी 40 पुस्तके और उनके दर्शन और चिंतन पर लगभग 18 पुस्तके उपलब्ध हैं, यदि आपको जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगते हैं तो एक बार उनकी पुस्तक "द एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट (जाति का विनाश)" पढ़ लेनी चाहिए!"

4 घंटे संविधान की लगातार पढ़ाई के बाद एक कप चाय की तलब से राहुल अपने रूम से चंदन चाचा की चाय की टपरी पर पहुंचा ही था कि उसने देखा वहां तो चाय पर चर्चा की पूरी महफिल जमी हुई है। गर्म चाय की चुस्कियों के बीच रोहित, अनुराग, शोभना के बीच गरमागरम बहस जारी थी। ज्योति बोल रही थी, " ...उन्हें उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार अवसर नहीं दिए गए। तुम्हे पता है रोहित, बाबा साहब अपने समय के सबसे पढ़े लिखे राजनेता थे, उनके जैसा कोई नहीं हुआ?" राहुल को आता देखकर शायद उसका ध्यान खींचते हुए रोहित बोला , " कोई किसी के जैसा नहीं होता ज्योति। हां ठीक है माना भीमराव अंबेडकर जी अपने समय के सबसे पढ़े लिखे नेता थे, पर क्या वह खुद अपने बचपन के चन्द कड़वे अनुभवों से उपजे जातिगत पूर्वाग्रहों से बच सके थे?" तभी शोभना बोल उठी, "हां यार मैंने कहीं पढ़ा था कि पहले स्कूल में बाबा साहेब का नाम उनके गांव आंबडवे के आधार पर भिवा रामजी आंबडवेकर लिखवाया गया था जिसे उनके एक ब्राह्मण शिक्षक...क्या नाम था उनका? हां, कृष्णा केशव आंबेडकर...उन्होंने आंबडवेकर कठिन उपनाम हटाकर अपना उपनाम अंबेडकर कर दिया था। मुझे समझ नहीं आता इतना पढ़ा–लिखा आदमी जिनका अंबेडकर उप नाम तक एक ब्राह्मण शिक्षक के द्वारा दिया गया, जिनकी शिक्षा के लिए सवर्णों के द्वारा समर्थन और छात्रवृत्ति दी गई, ऐसे सभी सवर्णों पर अंबेडकर जैसा उच्च शिक्षित व्यक्ति कैसे एक तरफ से अत्याचार का आरोप लगा सकता है?" हाँ में हाँ मिलाते हुए अनुराग बोला, " मैं अंबेडकर जी के योगदान का सम्मान करता हूं पर मुझे भीमराव अंबेडकर जी को संविधान का जनक कहा जाना समझ नहीं आता है। क्या संविधान अकेले भीमराव जी ने ही लिख डाला था? हद हो गई!" यह सब सुनकर अब राहुल से रहा नहीं गया। अपनी चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए थोड़ा सम्हलकर बोल उठा, " आप लोग बाबा साहेब के जातिगत पूर्वाग्रहों की बात कर रहे हैं, वह भी अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर भी एक इंसान थे। हर इंसान का व्यक्तित्व उसके जन्मस्थान, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिवेश, प्रारंभिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा, स्वाध्याय आदि पर आधारित होता ही है। अपने पूर्वाग्रहों से पूर्ण मुक्त कोई नहीं होता। रही बात बाबा साहेब के जातिगत पूर्वाग्रहों के मूल्यांकन की, तो मैं समझता हूं कि हम जैसे स्वयं के अनेक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त विद्यार्थी इसकी योग्यता नहीं रखते। हाँ, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का उचित मूल्यांकन करने हेतु हमें उन के साहित्य का स्वाध्याय बिना किसी पूर्वाग्रह के करना होगा। उनका एक कथन तो आप लोगों ने भी सुना ही होगा, " शिक्षा सिंहिनी का दूध है, जो पिएगा दहाड़ेगा।" तो अब ध्यान से सुनिए— 64 विषयों में मास्टर, 32 डिग्रियों के धारक, 9 भाषाओं के ज्ञाता, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से 8 साल की पढ़ाई मात्र 2 साल 3 महीने में पूर्ण करने वाले भीमराव अंबेडकर जिनकी 40 पुस्तके और उनके दर्शन और चिंतन पर लगभग 18 पुस्तके उपलब्ध हैं, यदि आपको जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगते हैं तो एक बार उनकी पुस्तक "द एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट (जाति का विनाश)" पढ़ लेनी चाहिए" चाय की टपरी पर ऐसा लेक्चर सुनना पड़ जायेगा ये रोहित, ज्योति अनुराग और शोभना ने सोचा भी न था। सब बिना कुछ बोले, खुले मुंह से राहुल की ओर एकदक देख रहे थे। राहुल कुछ सोचते हुए बोला, "समय ज्यादा नहीं है, अंबेडकर साहित्य फिनिश करना है आज मुझे। हाँ अनुराग, संविधान अकेले बाबा साहब ने लिखा ऐसा तो नहीं, पर संविधान निर्माण में उनका योगदान क्या रहा है इसका अनुमान लगाने के लिए संविधान सभा में, मसौदा समिति के सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी का यह लिखित कथन मैंने आज सुबह ही पढ़ा, तुम्हे इस पर ध्यान देना चाहिए।" राहुल ने अपने मोबाइल पर डाउनलोडेड ईबुक से पढ़ना शुरू किया,
"अध्यक्ष महोदय, मैं सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आम्बेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है। मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं।" उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था, वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया। सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है। आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था। एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था। एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था, और उस सीमा तक एक शून्य था। एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी। इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आम्बेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं। इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है।"
यह कथन सुनाकर राहुल बिना किसी की प्रतिक्रिया की अपेक्षा किए चुपचाप चाय के 7 रुपए चंदन चाचा को देकर रूम की ओर चल पड़ा। ज्योति बोली, "अरे राहुल रुको, ज़रा सुनो तो!" पर राहुल किसी की ओर ध्यान न देकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चुका था, उसे "संविधान निर्माण में बाबा साहब की भूमिका" विषय पर निबंध लेखन का अभ्यास करना था। 
— विजय शुक्ल बादल




Monday, December 12, 2022

निर्णयन में भावुकता और तार्किकता

प्रीति न कीजिए पंछी सी, पेड़ सूखे उड़ जाय!

प्रीति कीजिए मीन सी, जल सूखे मर जाय!!

– संत कबीरदास

प्रेम भावनाप्रधान होता है तो कवि द्वारा भावातिरेक में कही गई ये कर्णप्रिय बात हृदय को रोमांचित तो करती ही है! किंतु भावना में बहकर यदि आप मात्र शाब्दिक अर्थ में उलझ गए और भावुकता में कोई दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय ले बैठे तो यह कवि और कविता, दोनों के साथ अन्याय हो जायेगा! तो सर्वप्रथम यह तथ्य समझने जैसा है कि पंछियों–मछलियों तथा मनुष्य में बुद्धितत्व का आधारभूत अंतर होता है; यही अंतर मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ भी बनाता है! मनुष्य को पशु पंक्षियों के जीवन व्यवहार से सीख लेनी ही चाहिए लेकिन भावना में बहकर मनुष्य द्वारा निर्णयन प्रक्रिया में पशु पक्षियों जैसा व्यवहार करने लग जाने से तो मनुष्यत्व के साथ–साथ जीवन भी खतरे में पड़ सकता है! अस्तु, भावुकता में नहीं मनुष्य होकर विवेकशील मनुष्य जैसा व्यवहार ही उचित है! 


प्रश्न 1. प्रेम से विलग भावनाविहीन मनुष्य का जीवन भी कोई जीवन है? बिना भावना जीवन का क्या औचित्य?

नि:संदेह, मनुष्य के जीवन में प्रेम, ईर्ष्या आदि भावनाओं का इतना महत्व है कि बिना भावनात्मक जुड़ाव के सामान्य मनुष्य जीवन की परिकल्पना भी असंभव लगती है! तथापि समझने की बात है की भावनापूर्ण होने और भावनाओं में बहने में अंतर है! यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कई अन्य प्राणी भावना से प्रेरित होकर प्रत्येक क्रिया की मात्र यंत्रवत प्रतिक्रिया देते हैं! सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही हर क्रिया की प्रतिक्रिया देने से पूर्व निर्णयन प्रक्रिया से गुजरता है और सिर्फ भावना में बहकर यंत्रवत नहीं बल्कि बुद्धि विवेक का उपयोग कर सोच समझकर ही व्यवहार कर पाता है! इसलिए आप भावनाओं को जीभर जिएं किंतु क्योंकि आप मनुष्य मनुष्य रूप में जन्मे हैं इसलिए मैं समझता हूं, आप भावावेश में पशु पक्षियों की भांति यंत्रवत नहीं अपितु स्वयमेव मनुष्योचित विवेकपूर्ण व्यवहार करना ही उचित समझेंगे!


प्रश्न: 2. प्रेम सौंदर्यबोध कराता है!बिना सौंदर्य बोध के तो मनुष्य का जीवन नीरस हो जायेगा? 

सौंदर्यबोध क्षमता समस्त प्राणियों में मनुष्यमात्र को ही उपहार स्वरूप मिली हैं! बिना प्रेम सौंदर्यबोध संभव ही नहीं! किसी व्यक्ति विशेष से प्रेम, प्रेम का संकुचित स्वरूप है! विस्तृत अर्थ में तो हृदय में प्रेम विकसित हो जाने पर मात्र एक व्यक्ति नहीं अपितु संसार के कण–कण  के प्रति प्रेम की धार बहने लगती है! संकुचित प्रेम से उपजा सौंदर्यबोध केवल प्रिय व्यक्ति/ वस्तु/ दृश्य के प्रति ही प्रशंसा भाव उत्पन्न कर सकता है। संकुचित प्रेम का यह मूल दोष है कि यह प्रेमी/ प्रेयसी को असुंदर प्रेयसी/ प्रेमी में भी सौंदर्यबोध की प्रतीति कराता है! किसी शायर के भावातिरेक का स्तर तो देखिए ज़रा:

“दिल आया गधी पर तो परी की क्या बिसात!” अर्थात अगर किसी का गधी से प्रेम हो जाए तो उसके समक्ष स्वर्ग अप्सरा का सौंदर्य भी कुछ नहीं! तो संकुचित प्रेम से उपजे ऐसे सौंदर्यबोध से तो सौंदर्यबोध का न होना ही अच्छा है! जब संकुचित प्रेमभाव से उपजे सौंदर्यबोध से वशीभूत तुलसी जैसे वेद–शास्त्र पारंगत युवक को पत्नी रत्नावली के शारीरिक सौंदर्य में आसक्ति के चलते सांप और रस्सी के अंतर तक का बोध नहीं रहा तो सामान्य जन की क्या बिसात! कदाचित ऐसे ही भ्रामक सौंदर्यबोध के चलते ही "प्यार अंधा होता है" जैसे कथन प्रचलन में आए! वही तुलसी जब व्यक्ति विशेष के प्रति संकुचित प्रेम से निकलकर सम्पूर्ण जगत के प्रति विस्तृत प्रेम को हृदय में विकसित कर लेते हैं तो उनके सौंदर्यबोध का स्तर देखिए, उन्हें कण–कण में अपने आराध्य सियाराम के दर्शन होते हैं! 

"सीयराममय सब जग जानी!

करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी!!"

इसलिए मैं समझता हूं, व्यक्तिनिष्ठ संकुचित प्रेम से उत्पन्न भ्रामक सौंदर्यबोध के स्थान पर वस्तुनिष्ठ विस्तृत प्रेम से उत्पन्न सौंदर्यबोध से संसार अधिक सुंदर प्रतीत हो सकता है!


प्रश्न: 3 भावहीन मनुष्य की तुलना तो पत्थर तक से कर दी गई है! ऐसे में भावना के आधार पर निर्णय लेना गलत और बुद्धि के आधार पर तार्किक निर्णय सही यह कहना सही कैसे हुआ?

इस संबंध में डा० विकास दिव्य कीर्ति सर का यह उत्तर हर विवेकशील व्यक्ति के लिए विचारणीय है:

आप किसी व्यक्ति के प्रति भावना में बहकर अल्पकालिक प्रभाव डालने वाले जीवन के छोटे–मोटे निर्णय ले सकते हैं किंतु जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करने वाले दीर्घकालिक महत्वपूर्ण निर्णय बुद्धि–विवेक का पूर्ण सदुपयोग करके ही लिए जाने चाहिए! जैसे आपका/ आपकी कोई  दोस्त आग्रह करते हुए कहे, "मेरी खुशी के लिए क्या तुम मेरे साथ फिल्म देखने के लिए अपने 3 घंटे भी नही दे सकते/ सकती?"  यह जानते हुए भी कि आप के समय की बरबादी होगी फिर भी आप भावुक होकर कहें, "मेरे दोस्त, तुम्हारे लिए 3 घंटे क्या जिंदगी हाजिर है!" तो ठीक है इतने भावुक निर्णय से संभव है कि निरंतर पढ़ाई से उकताया आपका मन भी थोड़ा बहल जाये और तरोताज़ा मन से आप आपकी लक्ष्यप्राप्ति में हुए थोड़े से नुकसान की अतिरिक्त मेहनत से भरपाई कर ले जाएं! लेकिन कल्पना कीजिए कि वही दोस्त आकर यह कहे, "मेरी खुशी के लिए क्या तुम मुझसे शादी भी नहीं कर सकते/ सकती?" अब अगर भावुकता में बहकर आपने उसी अंदाज़ में यह कहा,  "मेरे दोस्त, तुम्हारे लिए एक जीवन तो क्या सौ जीवन हाजिर हैं!" तो सब चौपट समझो! तो बात समझने की यह है कि दीर्घकालिक प्रभाव और दूरगामी परिणाम लाने वाले बाद वाले प्रस्ताव पर भावुकता में नहीं तार्किकता के आधार पर निर्णय लेने में ही समझदारी है!


प्रश्न:4 लेकिन बिना कुछ सोचे विचारे तमाम प्राणी कितना प्रसन्न रहते हैं! क्या अत्यधिक गुणा–भाग करना ही मनुष्य के दु:ख का कारण है? 

अति किसी भी कार्य की हो दुखदाई ही होगी! परंतु मनुष्य के दु:ख का कारण गुणा भाग करना नहीं बल्कि गुणा भाग न कर बिना सोचे समझे कार्य करना है! यह सत्य है कि ज्ञान बुद्ध जनों को इस नश्वर संसार की निस्सारतामें व्याप्त दुःख का बोध कराता है! निस्संदेह, अज्ञान संसारिक संसाधनों में सुख ढूंढ लेने में सक्षम है, ठीक वैसे ही जैसे सुअर कीचड़ में भी परमस्वाद तत्पश्चात परमसुख की अनुभूति कर सकता है! पर मनुष्य का दुर्भाग्य है  कि वह चाहे भी तो कीचड़ में परमस्वाद प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे कीचड़ की वस्तुस्थिति का बोध है! बोधिसत्व सिद्धार्थ महलों में सुख ढूंढ ही नहीं सकते थे! परंतु भावना के वशीभूत अज्ञानी जन सांसारिक संसाधनों में ही सुख ढूंढने का प्रयास बारंबार करते हैं, क्षणिक सुख के भ्रमजाल में बारंबार दु:खी होते रहते हैं! यदि विवेकवान मनुष्य बिना भावना में बहे, सोच समझकर कार्यव्यवहार करे,  तो प्रत्येक संभावित अवश्यंभावी दु:ख के प्रभाव को न्यूनतम करना संभव है!

प्रश्न: 5. क्या इसका अर्थ यह हुआ कि दु:ख के इस संसार में सुख पाना है तो सभी को सांसारिकता छोड़ सन्यासी हो जाना होगा?

नवविवाहिता पत्नी और नवजात शिशु को छोड़कर जाते समय चाहते हुए भी सिद्धार्थ अंतिम बार राहुल का मुंह देखने का साहस नहीं जुटा सके। भय था कि कहीं बाल सौंदर्य देखकर पुत्रमोह प्रबल हो उठा तो? कहीं यशोधरा जग गई तो? घर संसार छोड़ना सरल नहीं!  बुद्ध हो जाना! यह तो बिरले घटित होने जैसी घटना है! तथागत बुद्ध ग्रहत्याग की कठिनाई  से भलीभांति अवगत थे, इसीलिए उन्होंने गृहस्थों के लिए और भिक्षुओं के लिए पृथक व्यवस्था दी! जो लोग गृहत्याग में अक्षम हैं, वह गृहस्थरूप में ही बोधि साधना कर सांसारिक दुःख से बचने का उपक्रम कर सकते हैं। किंतु गृहस्थों के मन में साधना की दिशा में भिक्षुओं की भांति साधना के सब जतन न कर पाने के अहसास के चलते एक न्यूनता का भाव आना स्वाभाविक है। इस मामले में गृहस्थों के लिए कबीर और नानक का दिखाया मार्ग अत्यंत सहज एवं चिर सुखदाई है। सब में रमते हुए भी बस यह सुरति अर्थात स्मृति रखना कि यहां कुछ भी चिर स्थाई नहीं, सब नश्वर है! सब कुछ करते हुए भी कर्ताभाव न रखना! कर्ताभाव ही मन में परिणाम की अपेक्षा उत्पन्न करता है। परिणाम मनचाहे न आने पर दु:ख होना अवश्यंभावी है! हर कार्य उसी एक को समर्पित करते चलने वाले कर्ताभाव से मुक्त व्यक्ति को संसार का कोई दुःख छू नहीं सकता, उसके समक्ष प्रत्येक परिणाम, व्यक्ति अथवा वस्तु सुख प्राप्ति का ही माध्यम है! विस्तृत प्रेम हृदय में धारण कर संसार में सब कुछ करते हुए, यहां तक कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रेम में आकंठ डूबते हुए भी, हर पल इस अनुभव की भी निस्सारता का ज्ञान/भान/सुरति/सुमिरन रखना, इस नश्वर संसार में जीवन पर्यंत और पश्चात चिरकालिक सुख देने वाला है! कबीर ने उक्त पंक्तियों में जिस प्रीति की बात की है, वह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति संकुचित प्रीति नहीं, वह तो उसी एक परमात्मा के प्रति वही विस्तृत प्रीति है जिस परमात्मा के बिना जीवन जल बिन मछली की ही भांति संभव नहीं।

©विजय शुक्ल बादल





Saturday, December 11, 2021

मेरा नहीं है जो, रुकेगा नहीं, जो मेरा है वो जा नहीं सकता!


 ग़ज़ल 


वो जो वादे पे आ नहीं सकता !

सितम है क्या जो ढा नहीं सकता! 


मेरा होकर निभा नहीं सकता!

मुझे अपना बना नहीं सकता!


लाख फ़ितरत में फ़रामोशी हो, 

पर तू मुझको भुला नहीं सकता!!

 

तू ज़माने को घूम आ तुझको,

दूसरा कोई भा नहीं सकता!


मेरे लिए लिखी गई जो ग़ज़ल,

वो कोई और गा नहीं सकता!


मेरी किस्मत में ही नहीं जो उसे,

कोशिशें कर के पा नहीं सकता!


मेरा नहीं है जो, रुकेगा नहीं,

जो मेरा है वो जा नहीं सकता!

©विजयशुक्लबादल


Saturday, June 26, 2021

कहानी : मासूम ज़िद्दी तितली ©विजय शुक्ल बादल

 मासूम ज़िद्दी तितली


शाम की छुटपुट बौछारों के बाद अचानक खिली तेज़ धूप ने उमस बढ़ा दी थी। बारिश से कुछ ही समय पहले गाँव लौटा अभिज्ञान बैठक के कमरे में तेज़ी से चलते पंखे के नीचे भाभी के हाथ से बनी गर्म पकौड़ियों और चाय की चुस्की लेते हुए मन ही मन गर्मी को कोस रहा था! 

तभी अचानक उसने देखा कि एक पीले रंग की तितली शायद उसकी मेज़ पर रखी पीली-पीली पकौड़ियों को फूल समझकर उस पर बैठ गयी। पर पकौड़ियाँ गर्म थी और फूल जैसी तो बिल्कुल नहीं थी, शायद इसीलिए उसका भ्रम टूट गया और वो तेज़ी से कमरे में इधर इधर मँडराने लगी। अभिज्ञान, इस डर से कि कहीं वो मासूम तितली तेज़ी से घूमते पंखे की ज़द में न आ जाए, जल्दी से उठा और पंखे का स्विच ऑफ कर दिया। उसने बैठक के कमरे का बाहर का दरवाजा खोल दिया ताकि कमरे में मँडराती तितली उस दरवाजे से बाहर निकलकर न सिर्फ़ अपनी जान बचा सके बल्कि अपने सच्चे साथी रसभरे वास्तविक फूल तक पहुंच सके। पर तितली तो जैसे खुद को नासमझ सिद्ध करने की ज़िद पर अड़ी थी, कमरे की खिड़की के शीशे पर जाकर बैठ गयी। अभिज्ञान ने पहले सोचा कि अपनी उंगलियों से पकड़कर उसे उसकी मंज़िल तक पहुँचा दे पर फिर अपनी सख़्त उंगलियों और तितली के नाज़ुक पंखों का ख़्याल आते ही वो सहम उठा। उसने एक कपड़े से उस तितली को खिड़की से उड़ाकर खुले दरवाजे की तरफ ले जाने की कोशिश की। तितली उड़ी और पूरे कमरे में इधर उधर चक्कर लगाकर नीचे फर्श पर आकर बैठ गयी। 

पंखा बंद होने के कारण गर्मी बहुत बढ़ गयी थी। अभिज्ञान भी पसीने से लगभग तर हो चुका था। पर उसने भी हार नहीं मानी थी। उसने एक कागज का टुकड़ा फर्श पर तितली के पास रखा और धीरे धीरे तितली के नीचे सरकाता चला गया तितली को भी शायद कागज़ पर आने में कोई समस्या न हुई। तितली के कागज़ पर आते ही अभिज्ञान ने धीरे से कागज़ उठाया और खुले हुए दरवाजे से तितली को खुले आसमान की ओर उछाल दिया। तितली भी अपने खूबसूरत पीले चित्तीदार पंखों से कलाबाजियां करती हुई उड़ने लगी। पर यह क्या! इधर-उधर उड़कर तितली खुले दरवाजे से फिर से कमरे में रखी ठंडी हो चुकी पकौड़ियों पर जाकर बैठ गयी थी। अभिज्ञान उस मासूम तितली के इस अप्रत्याशित कृत्य से हतप्रभ अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गया। छत में लगा पंखा तेज़ी से दौड़ रहा था और सिर पर मंडराते इस ख़तरे से बेख़बर मासूम तितली न जाने पकौड़ियों को फूल समझ रही थी, या अपनी मूल प्रवृति से इतर पकौड़ियों को ही तरज़ीह दे रही थी। अभिज्ञान के दिल की धड़कने अचानक तेज़ हो गयीं, उसका चेहरा लटक गया। दरअसल इस मासूम तितली का यह बर्ताव उसे अंजलि की याद दिला गया था! अभिज्ञान ने ख़ुद को जैसे-तैसे सहज कर मन की बेचैनी काबू करते हुए पकौड़ियों की प्लेट हाथ में ले ली और सोचा ये प्लेट ही जाकर बाहर रख देगा। अंजलि के ख़्यालों में खोया अभिज्ञान पकौड़ियों की प्लेट बाहर रख आया था पर उसने बाद में ध्यान दिया कि वह मासूम तितली तेज़ी से चलते पंखे के नीचे बेपरवाही से परवाज़ भरे जा रही थी। गर्मी इतनी ज्यादा थी कि नादान तितली के लिए पंखा बंद करने का ख़याल भी अब अभिज्ञान को नादानी ही लगी। तितली को बचाने की तमाम नाकाम कोशिशों से आजिज़ आकर अभिज्ञान ने तय किया कि वह किसी की ज़िंदगी और मौत में कोई हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं। जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही होगा। अपने में ही खोया अभिज्ञान यही सोचकर ऊपर अपने कमरे में चला गया। रात भर तितली और अंजलि के सपनों ने उसे बेचैन रखा। सुबह आंख खुली तो अभिज्ञान को तितली का ख्याल आया। वो तेज़ी से नीचे बैठक के कमरे की ओर भागा। जल्दबाज़ी में जाने कैसे उसका पैर फिसला फिर उसके बाद क्या हुआ उसे ख़बर नहीं। जब उसकी आंख खुली तो दीवार घड़ी 9:25 बजा रही थी। घर के सब लोग उसे घेर कर बैठे थे। माँ ने पूछा, "अभिज्ञान ये सब क्या है, ये कैसी हालत बना रखी है, हुआ क्या है तुम्हें? बेहोश कैसे हो गए थे तुम"

"माँ वो तितली कहाँ है, कैसी है? वो उड़ गई क्या?" अभिज्ञान ने पूछा। 

"इस हालत में तुम उसकी फ़िक्र में हो और वो मासूम ज़िद्दी तितली भी अभी तक रोशनदान की जाली पर बैठी है,  मानों तुम्हारे ही इंतज़ार में..." अभिज्ञान ने गौर से देखा, उसे रोशनदान पर वो मासूम और ज़िद्दी तितली की जगह अंजलि ही दिख रही थी। एक गहरी साँस भरकर उसने आँखे बंद कर ली और दो नन्हीं बूंदें आँखों की कोर से ढुलककर तकिये में समां गयीं!

©विजय शुक्ल बादल


Wednesday, February 26, 2020

दिल्ली हिंसा के कारण व अमन और शांति हेतु उपाय

नफ़रतें जब भी बढ़ीं बरबाद सब कुछ कर गयी हैं,
इसलिए पहुँचायें, आओ मिलके पैग़ाम-ए-मोहब्बत!
==============================
दिल्ली में जो हो रहा है, वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के बेलगाम लोगों के द्वारा की जाने वाली अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय राजनीति का परिणाम है! मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि इस समय प्रत्येक भारतीय को हिंदू मुस्लिम  के दृष्टिकोण से ऊपर उठकर मानव होने के नाते मानवता के पक्ष में खड़ा होना चुनना चाहिए और इस समय मानवता की मांग ये है कि किसी भी राजनेता के किसी भी बयान को बहुत ही ध्यान से सुने और अगर उसमें संकुचित राजनीतिक सरोकारों की बू आए तो उसमें मानवीय विवेक का उपयोग कर स्वयं सुनिश्चित करें कि आप कहीं किसी राजनीतिक खेल का हिस्सा तो नहीं बनने जा रहे! ज़रा सोचिए, कहीं आप किसी के हाथ की कठपुतली तो नहीं बन रहे हैं? मेरा ऐसा कहने के पीछे कुछ कारण है! सबसे पहले जो कारण मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ, वह यह है कि सी ए ए के विरोध में 70 से अधिक दिनों से हज़ारों महिलाएं अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ पूरी सर्दियाँ सड़क पर काट देती हैं और यह विरोध एक ऐसे कानून के लिए है जिससे भारतीय महिलाएं या भारतीय मुसलमान ही क्या, कोई भी इकलौता भारतीय नागरिक प्रभावित होने वाला नहीं है! यह बात सी ए ए का ड्राफ्ट भी कहता है और स्वयं भारत के प्रधानमंत्री भी इस बात को तीन बार दोहरा चुके हैं! सी ए ए पर प्रधानमंत्री के स्पष्टीकरण के बयानों को सुनने के बावजूद आज भी शाहीन बाग में हजारों की संख्या में महिलाएं उपस्थित ही नहीं है, पुरजोर ढंग से सीए के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करती भी देखी जा सकती हैं! जारी हुए वीडिओज़ यह दिखाते हैं कि सी ए ए का विरोध करती हुई तमाम महिलाओं में से अधिकांश को तो चंद स्वार्थीजनों के द्वारा दी गयी जानकारी के सिवा सी ए ए की सामान्य जानकारी भी नहीं है? फिर घर परिवार की जिम्मेदारियाँ दरकिनार कर इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं कैसे शाहीन बाग में अपनी मांग मनवाने के लिए इस शिद्दत से अड़ सकती हैं? स्पष्ट है घर की प्रतिदिन की ज़रूरतों की कीमत पर मुस्लिम पुरुषों ने उन्हें अनुमति दे रखी है! अब सवाल यह है कि भारतीय मुस्लिम जनों को बिल्कुल भी प्रभावित न करने वाले सी ए ए का ऐसा कौन सा डर दिखाया गया है कि वह आज सरकार के समक्ष शक्तिप्रदर्शन को मज़बूर हैं?
एक दूसरा दृश्य यह भी है कि जहां एक तरफ सी ए ए के विरोध में पूरे देश में कई शाहीनबाग बन चुके हैं, हजारों की तादाद में महिलाएं बच्चे सीए का विरोध करते देखे जा सकते हैं, वही दूसरी ओर सी ए ए के समर्थन में भी पूरे देश आयोजित सैकड़ों रैलियों में हजारों की तादाद में लोग सीएएए का समर्थन भी करते नजर आ रहे हैं! सीए के समर्थन में की जाने वाली इन रैलियों में मीडिया पर जारी वीडिओज़ के माध्यम से कुछ ऐसे लोग भी देखे गए जिन्हें सी ए ए का फुल फॉर्म भी नहीं पता था!  अब जिस बुनियादी प्रश्न  की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं वह यह है कि कौन है जो रोज़ी रोटी की ज़द्दोज़हद में लगे भारत के हज़ारों गरीबों और बेरोजगारों को ज़रूरत की जंग छोड़कर सड़कों पर भीड़ का हिस्सा बनने को विवश कर रहा है? यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि भारत के सम्मानित नागरिक होने के नाते हमें यह पूरा अधिकार है कि हम सरकार द्वारा लाए गए किसी कानून का समर्थन करें या उसका शांतिपूर्ण ढंग से विरोध! किंतु मात्र कुछ लोगों के आवाहन पर किसी कानून को बिना जाने, बिना समझे उसके विरोध अथवा समर्थन के प्रदर्शन कार्यक्रमों में प्रतिभाग करने से पूर्व यह विचार आवश्यक है कि कहीं हम बरसों से भारत की पहचान रही हिंदू-मुस्लिम एकता, आपसी भाईचारा और अमन को खत्म करने की ओछी सियासत का हिस्सा तो नहीं बनने जा रहे?
उक्त मन्तव्य को सुदृढ सिद्ध करने के उद्देश्य से अब मैं एक तथ्य साभार Dhruv Gupt सर की फेसबुक पोस्ट से यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा! उन्होंने कहा कि अगर हम राजनीति के क्षेत्र के धुर-विरोधी नेताओं को सभी सुविधाओं से युक्त एक बड़े कमरे में बंद कर दें और 24 घंटे बाद हम पाएंगे कि वह आपस में मिलजुल कर के एक दूसरे से हंसी ठिठोली करते हुए जाम से जाम टकराते हुए बिरयानी साझा कर रहे होंगे! दूसरी ओर, कल्पना कीजिए, इन्हीं धुर विरोधी राजनेताओं के समर्थकों को 24 घंटों के लिए एक बड़े हॉल में बंद कर दिया जाए तो क्या क्या परिणाम हो सकते हैं? सम्भव है बात आपसी बहस से शुरू होकर सिरफुटौव्वल से होकर कुछ एक की जान लेकर भी ख़त्म न हो!
ये पक्ष विपक्ष के समर्थकों में इतनी कटुता क्यों है? कौन भर रहा है ये नफ़रत का ज़हर हमारी नसों में? देश का दुर्भाग्य यह है कि भारत के राजनेताओं को हर घटना-दुर्घटना में राजनीतिक अवसर के सिवा और कुछ नज़र ही नहीं आता! मीडिया भी अपनी  खबरों वीडियो फुटेज के ज़रिए आग में तेल डालने जैसे चरित्र के सिवा कुछ और प्रदर्शित करता नहीं दिखता! ख़ैर राजनीति करना राजनेताओं  का अधिकार है वो शौक़ से राजनीति करें! टीआरपी बढ़ाने जैसी हर ख़बर दिनभर चैनलों पर चलाकर व्यवसाय करना मीडिया का अधिकार है वो अपना कार्य बदस्तूर जारी रखने को स्वतंत्र है! किन्तु हे भारत के सम्मानित नागरिक, आप से हाथ जोड़कर मात्र इतनी सी अपील है कि आप किसी शांतिपूर्ण समर्थन/विरोध प्रदर्शन अथवा किसी भी गतिविधि का हिस्सा बनते समय यह अवश्य सोच-विचार कर लें कि क्या आप स्वयं अपनी इच्छा से ऐसा करना चाहते हैं? अब हर सच्चे देशभक्त को अपने मर्यादित आचरण से यह स्पष्ट संदेश देना ही होगा है कि देश के सौहार्द और अमन को क्षति पहुँचाने वाली अथवा देशहित को दरकिनारकर  संकुचित स्वार्थ से सनी कोई भी राजनीति देश में अगर की जाएगी तो आम भारतीय उसका हिस्सा नहीं बनेगा!

इतनी दुआ क़ुबूल हो मेरी मेरे मालिक,
चैन-ओ-अमन शहर में हमेशा बना रहे!
©विजयशुक्लबादल
#BigNo2NarrowPolitics
#IndiaForPeaceAndBrotherhood
#delhi_voilence
चित्र India today की website से साभार

Saturday, September 14, 2019

#हिंदी दिवस

हिंदी की वर्तमान स्थिति पर गंभीरता से विचार रखते हुए कई विद्वान रचनाकार 14 सितंबर के दिन "हिंदी दिवस" मनाने को हिंदी की दयनीय स्थिति और हिंदी वालों की विवशता मानकर चिन्तित दिखाई देते हैं, वहीं मैं हिंदी की वर्तमान स्थिति व इसकी उन्नति- प्रगति को लेकर पूर्ण आश्वस्त हूँ! इस आश्वस्ति का कारण यह है कि परिवर्तनशील परिदृश्य में हिंदी ने वर्तमान आवश्यकता का अनुभव कर अनेक भाषाओं के अनेकानेक प्रचलित शब्दों को अत्यंत सहजता से आत्मसात करने में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है। अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के नाम से पुकारी जाने वाली "अंग्रेज़ी" भाषा संभवतः अन्य भाषाओं के अतिप्रचलित शब्दों को बिना किसी संकोच के आत्मसात कर स्वयं के शब्दकोश को विस्तारित करने की अपनी अनुपम विशेषता के फलस्वरूप ही उक्त गौरव प्राप्त कर सकी। हिंदी भी मुझे इसी प्रगतिपथ पर अग्रसर दिखाई देती है! हिंदी दिवस की शुभकामना व बधाई देते हुए अगणित हिन्दीपुत्र/ पुत्रियों की रचनाएँ विभिन्न सोशल मीडिया पटलों पर देखिये तो सही, उनमें बड़ी सहजता से अन्य भाषाओं यथा उर्दू, अरबी, फारसी, नेपाली, और अंग्रेज़ी के भी शब्दों का सहज प्रयोग किया गया है! हिंदी के प्रचार- प्रसार और विकास के लिए यह अत्यंत आवश्यक और सुखद संकेत प्रतीत होता है। अनेकानेक भाषाओं और बोलियों के प्रचलित शब्दों का समावेश करते हुए हिंदी शनैः शनैः अपना आँचल विस्तृत करती जा रही है और वह दिन अधिक दूर नहीं जब मात्र भारतवर्ष ही नहीं, समूचा विश्व हिंदी की आवश्यकता और इसकी विहंगमता को स्वीकार करने को विवश होगा!
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मात्र कौतूहल उत्पन्न करने हेतु अथवा प्रदर्शन के उद्देश्य से बिना विचारे अन्य भाषा के शब्दों का दुरुपयोग हिंदी की उन्नति के परिप्रेक्ष्य में कुछेक आशंकायें भी उत्पन्न करता है! इसलिए, यह आवश्यक है कि हिंदी के विहंगम शब्दकोश में उचित विमर्श के पश्चात ही अन्य भाषाओं के आवश्यक शब्दों का समावेश हो! किन्तु समय के साथ- साथ यह समावेश अनिवार्य भी है, ऐसा इसलिए कि किसी भाषा की उन्नति-प्रगति हेतु उसके शब्दकोष में यथोचित सामयिक संवर्धन अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार के समावेश का एक प्रभाव यह भी हो रहा है कि अपनी भाषा के शब्दों को हिंदी में देखकर अन्यभाषाभाषी भी हिंदी के प्रयोग की ओर अग्रसर हो रहे हैं, मुझे लगता है यह सुखद शुभारंभ है! भाषा की उन्नति और प्रसार मात्र व्याकरणसम्मत लेखन- पठन से नहीं अपितु उसकी ग्राह्यता के संवर्धन से ही संभव है!😊
सभी स्नेहीजनों को हिंदी दिवस की अनेकशः शुभकामनाएँ!😊💐💐

माँ हिंदी की उपलब्धियों पर उसका गर्वित पुत्र
विजय शुक्ल बादल
जय हिंदी; जय भारत!🇮🇳🇮🇳
#हिंदी_दिवस

Friday, September 1, 2017

एक मुक्तक

क़फ़स में कबसे इक परिंदा है!
जाने किस बात पे शर्मिंदा है?
वो जो इंसाँ था मर गया कल शब,
वो जो नेता है वही ज़िंदा है।।

नेताओ और बाबाओं से छुटकारे का फौरी समाधान

मुझे तो लगता है कि कम से कम भारत के इन कथित नेताओं और बाबाओ को एक बड़े से, सारी सुख-सुविधाओं से युक्त पानी के जहाज़ में भरकर हमेशा के लिए बीच समंदर छोड़ देना चाहिए! देश को ख़ुद के मनहूस साये से आज़ाद करने के बदले में इन नेताओं के लिए आजीवन इतनी सुविधाएं तो बनती ही हैं। देश का नेतृत्व प्रखर बुद्धि वाले कर्मठ ईमानदार युवाओं को मिले...जाति, धर्म, भाषा जैसे वर्तमान संकुचित धारणाओं से निकल कर राजनीति समस्त प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों के समुचित सदुपयोग पर केंद्रित हो। ईमानदार युवाओं द्धारा, ईमानदारों के लिए बेईमानों पर शासन!

Image may contain: ocean, water and outdoor

न्रिशंसता; लखीमपुर युवक ने बच्ची कलाई काट डाली...

काटकर कमसिन कलाई, क़त्ल कर क़िरदार का,
रूप धर नर का, नशे मे घूमते हैं नरपिशाच...!
~विजय शुक्ल बादल
 
कैसे कुछ बोले गूंगों की बस्ती है,
और बहरे सरकार चलाने वाले हैं!
मनमाने मुसिफ़, फ़रियादी बेबस हैं,
न्याय का शव क्षत-विक्षत, सच पर ताले हैं!!


अंधभक्त...बाबा के दर पर

आज युवाओं में धर्म के नाम पर फैले आडम्बर के प्रति कहीं ज़्यादा गुस्से की ज़रूरत है...कुछ तो करना होगा! पर नई पीढ़ी अपना कीमती गुस्सा सोशल मीडिया पर बाबाओं को अपशब्द कहने और धर्मभीरु श्रद्धालुओं की कटु एवं कभी कभी अभद्र आलोचना करने में ज़ाया करती नज़र आ रही है। नई पीढ़ी वही कर रही है जैसी उसकी कंडीशनिंग की गई है...चन्द चतुर सुजान किंतु स्वार्थी लोगों द्वारा ऐसा कर के दिखाया गया और हमारे युवा आक्रोशव्यक्त करने के इसी तरीक़े को ले उड़े! ज़रूरत है इस गुस्से का सदुपयोग करने की ताकि केवल शोर न हो, कुछ संदेश पहुँचे! पर दुर्भाग्यपूर्ण है, नई पीढ़ी के युवाओं को सोशल मीडिया के दुरुपयोग के उथले तात्कालिक लाभों के आगे दूरगामी ख़तरे नज़र नही आ रहे! यहाँ तो जैसे हर कोई अपना नया झंडा गढ़ने की जुगत में है; सोशल मीडिया झंडा ऊंचा करने वालों का जमावड़ा भर बनकर रह गया है! झंडे बदलते रहते हैं बस..! सोशल मीडिया की ताक़त का सदुपयोग करने का ज़िम्मा चंद लोग ही सम्हाले नज़र आते हैं, ..ऐसे में हर युवा का कर्तव्य है कि हम समय जितना भी दे सकें, उन चंद लोगों में शामिल होने की कोशिश रहे!
और हाँ, एक बात और! मुझे लगता है कि हमारा काम है कि दूसरों का जो व्यवहार हमें उचित न लगे, वो व्यवहार से हम स्वयं को विलग रखें और सदैव उचित व्यवहारयुक्त आचरण ही करें! आवश्यकता पड़ने पर अपनी बात संसदीय भाषा मे ही सामने वाले के समक्ष रखें! आचरण की पवित्रता से समृद्ध, स्नेह व सद्भावयुक्त बात धीरे से भी कह दी जाए तो अंगुलिमानों को भी संत बनाने की क्षमता रखती है...कुत्सित बुद्धि और आचरण करने वालों के मुख से निकले कथित धार्मिक विचार धर्म के भी नाम पर लोगों को उपद्रवी ही बनाते दिखते आये है! अतएव कथनी को करनी का समर्थन अवश्य चाहिए अन्यथा अत्यंत सुंदर व आध्यात्मिक सद्विचारों वाले संत भी आसाराम जैसे पतित ही सिद्ध होते रहेंगे..!

Sunday, June 4, 2017

ग़ज़ल- जब तलक उल्फत न थी...

https://www.youtube.com/watch?v=ys2-M8HaCVE
जब तलक़ उल्फ़त न थी क्या दर्द है जाना न था!
मेरे हांथों में कलम रहता था पैमाना न था!!

अब गले पड़ता है तो फिर होते हो नाशाद क्यों,
यूँ था तो फिर शेख़ जी ऊँगली को पकड़ाना न था!!

या तो करनी ही न थी तुझको मोहब्बत या तो फिर,
ओखली में देके सर चोटों से घबराना न था!!

मेहरबान वो हो गया होता बस इतनी शर्त थी,
हाँ-हुजूरी करनी थी सच उसको बतलाना न था!!

उसको पाने की तड़प दैर-ओ-हरम तक ले गयी,
दिल में ही बसता है वो दिल का सुकूँ माना न था!!

दोस्तों उल्फत में वो था चाहता मेरा ज़मीर,
पास मेरे जाँ से बेहतर कोई नज़राना न था!!

कितने है जो प्यार से मरहम लगायेंगे बता,
अंजुमन में हर किसी को ज़ख्म दिखलाना न था!!

आँखों के "बादल" बरस ही जाने थे लेकिन मुझे,
आँसुओं की आंच से पत्थर को पिघलाना न था!!

-विजय शुक्ल बादल



Friday, March 10, 2017

ग़ज़ल- प्रश्न है तो है हल समझेंगे


प्रश्न है तो है हल, समझेंगे।
आज नहीं तो कल समझेंगे।।

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई,
राजनीति का छल समझेंगे।।

भाई अक्सर क्यों लड़ते हम,
बैठ ज़रा दो पल, समझेंगे।।

आ चल! गंगातट चलते हैं,
क्या है गंगाजल, समझेंगे।।

क्या हम कलयुग के रावण से,
सीता का आँचल समझेंगे?

आओ आज को जी भर जी लें,
कल जो होगा,  कल समझेंगे।।

कब साहिल पर बैठने वाले,
सागर की हलचल समझेंगे!?










Wednesday, March 8, 2017

चैन-ओ-अमन शहर में हमेशा बना रहे!!!

लखीमपुर में कर्फ्यू के हालात पर सभी हिन्दू मुस्लिम भाई-बहनों के भले के लिए अपने इष्ट से एक प्रार्थना- सभी सम्मानित गुरुजनों, अग्रजों और सभी बुद्धिजीवी साथियों को प्रणाम करते हुए!!!


अच्छा-बुरा है, मेरा है, मेरा बना रहे।
बरसों से जो क़ायम है भरोसा बना रहे।।

दीवार मज़हबी न खड़ी हो कोई यहाँ,
है प्यार जो दिलों के दरमियाँ बना रहे।।

हिन्दू बने, मुस्लिम बने, सिख या की ईसाई,
पर सबसे है बेहतर कि तू इन्सां बना रहे।।

दुनिया को दिखा पाये जो तस्वीर-ए-हक़ीक़त,
हर एक सुख़नवर वो आईना बना रहे।।

इतनी दुआ क़ुबूल हो मेरी मेरे मालिक,
चैन-ओ-अमन शहर में हमेशा बना रहे।।

पैग़ाम-ए-मोहब्बत; वक़्त की ज़रूरत

नफ़रतें जब भी बढ़ी बर्बाद सब कुछ कर गयी है,
इसलिए पहुंचाएं आओ मिल के पैगाम-ए-मोहब्बत...

Monday, March 6, 2017

कहानी-कर्फ्यू

“कर्फ्यू”

क्या! कर्फ्यू लग गया!! लखीमपुर खीरी में!!! वो शहर जो पूरे उत्तर प्रदेश में भाईचारे और अमनपसंदगी के लिए जाना जाता है, उस शहर में कर्फ्यू!!! टीवी स्क्रीन पर ये ख़बर देखकर भी यकीन नहीं हुआ तो ख़बर की सच्चाई पता करने के लिए चन्दर सड़क पर निकल आया! बाजार बंद, शटर गिरे हुए!! कुछ एक लोग इधर उधर बातचीत करते हुए नज़र आ रहे हैं। मोहल्ले के नुक्कड़ पर बारह तेरह लोग खड़े हैं। चन्दर माहौल का अंदाज़ा लगाने के लिए सड़क पर खड़े लोगों की बाते सुनने लगा। शहर के प्रमुख महाविद्यालय के प्रवक्ता सूरजभान श्रीवास्तव जी, एक सम्मानित व्यक्ति हैं शहर के, बोल रहे थे, "नहीं-नहीं ये ठीक नहीं है कि कोई ट्वेल्थ क्लास का लड़का कोई मूर्खता करे और हम समझदार लोग प्रतिक्रिया स्वरुप बड़ी मूर्खता करें और शहर का माहौल बिगाड़ दें। हमें लखीमपुर का माहौल बिगाड़ने वालों का साथ नहीं देना चाहिए चाहे वो किसी मज़हब के हों...चंद सिरफिरों के कारण सभी मुसलमान भाईयों को गुनहगार मान लेना कहाँ की समझदारी है...” बीच में ही बात को काटते हुए लाला बोल उठा, " तो सारी समझदारी का ठेका हम हिन्दुओं ने ही ले रखा है सर! क्या हिन्दू अपना...अपने देवी देवताओं का अपमान करने वाले को यूँ ही छोड़ दें! माफ़ कीजिये हम से अब और ये न हो सकेगा। वो उनके पैग़म्बर मोहम्मद साहब के ऊपर हुई ग़लत टिप्पड़ी पर इतना बवाल मचा देते हैं| क्या हमारे देवी देवताओं का अपमान, अपमान नहीं? उस लड़के को छोड़ा गया तो अच्छा नहीं होगा सर! अरे रोहन! बता न सर को, उस सूअर ने उस वीडियो मे जो कुछ कहा है वो सुनकर तो सर आप से भी न रहा जायेगा।" लाला के ऐसे तेवर तो सूरजभान जी ने कभी न देखे थे | माहौल को समझकर सभी को सम्बोधित करते हुए बोले, ‘देखिये पहले तो ऐसे किसी वीडियो की बात ही न हो अब, इससे हमारा...हमारे देवी देवताओं का सम्मान बढ़ थोड़े ही जायेगा! और लाला! ये कैसी भाषा सीख ली है तुमने? मेरे सामने भी...” लाला सूरजभान जी का बहुत सम्मान करता था उन्होंने उसे न सिर्फ पढाया था बल्कि समय समय पर उसका मार्गदर्शन भी करते रहते थे|
लाला वैसे तो मोहल्ले में एक मिलनसार लड़का माना जाता है, हर किसी के काम पर हर वक़्त हाज़िर...बस एक फ़ोन करने कि देरी है| पर इधर कुछ सालों से जबसे लाला पर राजनीति का बुखार चढ़ा है तब से स्वभाव में तैश कुछ ज्यादा ही रहने लगा है...खैर! चंदर चुपचाप सारी बातें सुन कर माहौल को समझने की कोशिश कर रहा था| तभी नंदू चाचा, नुक्कड़ पर चाय का ठेला लगाते हैं, बोल उठे, “ यो ससुर लखीमपुर मा त कबहूँ अइसा न भवा! हियाँ के नेता बढ़िया हइं, कुछु काम त न करत, तबहूं बढ़िया हइं, कबहूँ लखीमपुर का माहौल तउ न बिगाड़ा! पर अब इधर कछु ढाई तीन सालन ते याक अजब किसम केरी राजनीती शुरू भई है जो, हियाँ के माहौल का बिगाड़े धरे दे रही है... कछु नए नए नेता का उभर रहे हैं दुनहू पच्छन मा... ये इ सब बिगड़े माहौल का और बिगाड़े की कोसिस करि रहे हैं येहिमा इनका का जाने का लाभ है...अब अगर हम सब मिलि-जुलि के रहि रहे हैं तौ ये इनका हज़म न हुई रहा. अब काम धंधा सब चौपट दुई चार दिन की खातिर...”
तभी मोहल्ले के एक वकील साहब, आज सुबह सुबह ही थोड़ी लगा लिए थे शायद...घर का गेट खोलकर निकले और सीधे पब्लिक से रूबरू हुए, ‘ अरे भाई बात सिर्फ इत्ती सी है कि बात कुच्छ नहीं है...ही ही ही! और लाला सुनो! ऐसे समझो कि एक चूतिये ने एक चूतियापा किया, चन्द चूतियों ने दूसरा और सबसे बड़ा चुतियापा शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया! हा हा हा...’ “अरे वकील साहब तो आपको यहाँ आकर अपना चूतियापा सिद्ध करने का किसने निमंत्रण दिया है? बोलने कि तमीज़ नहीं है तो क्यों बोलते हैं आप? आप तो अपने घर ही जाओ...खुद सही से चला नही जा रहा और चले आये हैं हमे चलना सिखाने...” लाला कि त्योरियां चढ़ी देखकर चार पांच लड़के वकील साहब को उठाकर बइज्ज़त उन्हें उनके गेट के अन्दर रख आये| वकील साहब... कुछ पता नहीं क्या बडबडाते जा रहे थे, ‘अरे अरे! रुको, सुनो तो भाई, जरा ठहरो तो...
वकील साहब कि हरकत से लाला का मूड और ख़राब सा हो गया, “ अब और नहीं सहेंगे सर! अब फैसला होकर रहेगा!” पर सूरजभान जी बात को भांप न सके, ज़रा जोर से बोले, ‘क्या फैसला होकर रहेगा लाला? तुम भी! और ये वकील साहब! सुबह से ही शराब...हद है, नशे में कुछ भी बोल देते है! इनको तो पागल समझो...” लाला अब तैश में आ चुका था, “ किस किस को पागल समझें सर, लोकतंत्र का मतलब ये है क्या कि कोई कुछ भी बोल देगा यहाँ...मन चाहे जिसको जो गाली दो; कि तुम्हे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता है! सर अपने यहाँ पागलों के दो ही इलाज़ होते हैं या तो उन्हें पागलखाने भेज दिया जाता है और अगर समाज को उनसे खतरा हो तो सीधे उपर वाले के पास...” गहमागहमी के माहौल का अहसास कर सूरजभान जी थोडा नरमी से काम लेते हुए बोले, ”देखो लाला! मै किसी भी संविधानेतर गतिविधि का कभी समर्थन नहीं कर सकता. वो लड़का तो पहले से ही गिरफ्तार किया जा चुका है, पुलिस ने भी उचित धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज करने का आश्वासन देकर उसे सीधे जेल भेज दिया है... बाकी उस पक्ष में भी सब शांत हैं अब, तो तुम लोग क्यूँ माहौल को ख़राब करना चाहते हो? अब तो जैसे लगता है कि तुम...तुम्हारे जैसे युवाओं के इसी उत्तेजक रवैये का नतीजा है कि शहर में एक अनिश्चितता का सा माहौल बना हुआ है|” “अच्छा, सारा माहौल तो हमने बिगाड़ा है सर! वो लोग तो साधू सन्यासी हैं न! वो कुछ भी कहें, कुछ भी करें और हम अगर अपने धर्म, अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आवाज़ उठाये तो हम गलत हैं, साम्प्रदायिक हैं? ये कैसा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है जहाँ हिन्दुओं के लिए धार्मिक समानता के अधिकार की बात करना साम्प्रदायिक हो जाता है? ऐसी धर्मं निरपेक्षता हमें रास नहीं आती सर! हम धार्मिक हैं, हमें अपना धर्म जान से भी प्यारा है!” कई लड़के एक साथ चिल्लाये, ‘लाला भैया सही कह रहे है सर! हर हर महादेव, जय महाकाल!!! “
इस सब शोर शराबे की बातचीत के कारण चालीस-पचास लोग इकट्ठे हो गए| सूरजभान जी समझ नहीं पा रहे थे कि क्या कहा जाये! कैसे समझाया जाये भीड़ को! भीड़ स्वाभाव से ही उग्र होती है| पढ़े लिखे समझदार लोग तक भीड़ का हिस्सा बनकर अक्सर भेड़ों जैसा और कभी कभी भेड़ियों जैसा व्यव्हार कर बैठते है! पर जनहित में लोगों को इंसान बने रहना ही होगा| ये समझना ही होगा कि हालात अगर कहीं बेकाबू हुए तो नुकसान सबका है! सवाल ये नहीं कि नुकसान किसका कम या ज्यादा होगा...दंगो का इतिहास है कि नुकसान चाहे हिन्दू का ज़्यादा हो या मुसलमान का, सबसे ज्यादा नुकसान इंसानियत का हुआ है| सूरजभान जी इसी चिंता में कुछ सोच न सके! हलक जैसे सूख सी गयी हो! उनका चिंताग्रस्त चेहरा देखकर अब चंदर से न रहा गया! बोल पड़ा, “ अगर आप लोगो की इजाज़त हो तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ?” दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी चन्दर मोहल्ले में अपनी ख़ामोशी के लिए जाना जाता था...अपने काम से काम...लिखने पढने का अभ्यस्त चंदर यूँ तो मोहल्ले की किसी गतिविधि से अधिकतर दूर ही रहता था| पर लाला वो सत्संग वाले दिन से उसकी बड़ी इज्ज़त करने लगा था| उस दिन चंदर धर्मं और राजनीती के जुड़ाव पर बोला था| लाला को ध्यान आया, उस दिन चंदर ने कहा था, ”राजनीति के साथ अगर धर्मं हो जाये तो देश का विकास होता है, परन्तु यदि धर्म के साथ राजनीति हो जाये तो सर्वनाश होता है...” इधर सारी घटनाक्रम से सशंकित सूरजभान सर उसे मना कर रहे हैं कि वहां का माहौल कही और न बिगड़ जाये ! पर चंदर है कि बोलना चाहता है, बड़ी सहजता से...एक सच्ची मगर सावधान मुस्कान के साथ चन्दन कहने लगा “देखिये माहौल को बनाना है तो किसी एक पक्ष को समझदारी दिखानी होती है...जिन शहरों में ऐसा नहीं होता, वहाँ आए दिन माहौल बिगड़ता रहता है, कर्फ्यू लगते रहते हैं| पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हाल किसी से छिपा नहीं है! सही कह रहे थे नंदू चाचा, कुछ सालों से कुछ कथित धार्मिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं अपने शहर में! अगर बारीकी से पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि उन्ही बढ़ी गतिविधियों का परिणाम है ये वीडियो...! देखिये...हम सब मानते हैं कि धर्मं श्रद्धा का विषय है...!’ चंदर बोले जा रहा था, “श्रद्धा एक नितांत व्यग्तिगत भाव है अपने इष्ट के प्रति, इसके प्रदर्शन की क्या आवश्यकता? फिर मुझे ये समझ नहीं आता कि क्यूँ हिन्दू बुद्धिजीवी जो मुसलमानों के जुलूसों, सड़क पर नमाज़ का जन-असुविधा के नाम पर एक तरफ तो बड़ी आलोचना करते हैं, पर दूसरी तरफ, हनुमान-यात्रा और महाशिवरात्रि जैसे त्योहारों पर वैसे ही बड़े धार्मिक आयोजनों का बढचढ कर समर्थन करते दिखते हैं...देखिये धर्मं आस्था का विषय है, होड़ का नहीं! पर हम होड़ करने में लगे हैं! होड़ कि किसके त्यौहार पर शहर ज्यादा जगमगाएगा! किसके त्यौहार पर कितना भव्य आयोजन होगा! कितने ज्यादा लोग इकट्ठे हों सकेंगे...कभी कभी ये धर्मं कम, एक बड़े सफल धार्मिक गतिविधि का आयोजन कर शक्तिप्रदर्शन करने जैसा अधिक लगता है...जो अगली बार दूसरे पक्ष के एक और बड़े धार्मिक आयोजन के रूप में परिणत दिखाई देता है! जिस पक्ष का आयोजन कमतर रह जाये वो कुंठा में प्रतिक्रिया स्वरुप कुछ भी ऐसी उल-जुलूल हरकते तक कर बैठता है कि सौहार्द का वातावरण तक विषाक्त हो उठे...ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं...मैं तो आप सबसे हाथ जोड़कर यही अपील करूँगा कि धर्मं व्यक्तिगत श्रद्धा का विषय है प्रदर्शन से इसका कोई लेना देना नहीं! फिर भी जो भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुसार श्रद्धा पूर्वक जैसी धर्मिक गतिविधि करके ईश्वरीय अनुभूति प्राप्त कर सके वो वैसा ही करे| इसमें मुझे हस्तक्षेप करने का न तो कोई अधिकार है और न ही कोई औचित्य! पर क्या हम इतना ध्यान रख सकते हैं कि हमारी आस्था से सम्बंधित किसी भी गतिविधि से किसी अन्य कि आस्था को ठेस न पहुचे, किसी अन्य को कोई असुविधा न हो? अगर किसी धार्मिक गतिविधि से दिलो के बीच वैमनस्यता फैलती हो ऐसी धार्मिक गतिविधियों का क्या लाभ? धर्म के बारे में तो हमारे यहाँ ये भी कहा भी जाता है –आत्मन: प्रतिकूलानि परेषाम न समा चारेति! यानि जो व्यवहार आप दूसरो से अपने प्रति नहीं चाहते, वो व्यवहार दूसरों के साथ कभी न करें| अगर हमारे देश का सुप्रीम कोर्ट, जो अक्सर जनहित के मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर हस्तक्षेप करता रहता है, काश इस मामले में भी हस्तक्षेप कर सके| ज़रा सोचिये! धर्मनिरपेक्ष भारतवर्ष में क्या ऐसा नहीं हो सकता कि धर्मं को मनुष्य और उस सर्वशक्तिमान के मध्य नितांत व्यक्तिगत विषय मानकर संविधानसम्मत व्यवस्था के माध्यम से उसे घरों, मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों, गुरुद्वारों की दहलीज़ तक सीमित कर दिया जाये और सड़क लोगों चलने के लिए छोड़ दी जाये? लोग पूरे सच्चे मन से अपने घरो में या मंदिर, मस्जिद गिरिजाघर, गुरूद्वारे में, अपने अपने तरीके से पूजा, इबादत, दुआएं, प्रार्थनाये करें! कोई सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं! काश! काश ऐसा हो जाये तो धर्म के नाम पर हमें बांटने वाले अधिकांश कथित राजनेताओं की सांप्रदायिक राजनीति को विराम लग जाये| अगर ऐसा हो सके तो मुझे लगता है कि हमारे देश में साम्प्रदायिक दंगे इतिहास मात्र बनकर रह जायेंगे!”
चंदर अपने कल्पना लोक में खोया अपने सूरजभान सर से मुखातिब हो अनवरत बोले जा रहा था! पर अभी उसने ध्यान दिया, उनके और चार छः लोगों के सिवा और कोई वहा सुनने वाला नहीं बचा था, लाला और अन्य लोग एक-एक कर कबके जा चुके थे...सूरजभान जी हतप्रभ से चंदर को देख रहे थे! उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, “चन्दर! तुम सही कह रहे हो शायद! पर तुम उन लोगों के सामने हीरे मोती लुटा रहे हो जो एक तरह की भूंख से परेशान हैं, इन्हें इनकी रोटी चाहिए...तुम्हारा ये दर्शानात्मक व्याख्यान इनके लिए कंकर-पत्थर से अधिक नहीं...”
तभी पुलिस के साईरन कि आवाज़ सुनकर बचे खुचे लोग हडबडाहट में अपने-अपने घर की ओर तेज़ी से जाने लगे| चंदर गुरूजी को प्रणाम कर वहां से चुपचाप... मायूस... हताश घर की तरफ़ चल पड़ा! अपने में ही गुमसुम सा...चंदर! कुछ एक कदम ही तो आगे बढ़ा था गली में, कि सामने से जगदीप, चंदर के कॉलेज का दोस्त, अभी एक प्राइवेट स्कूल में पढाता है, आता हुआ नज़र आया| मज़ाक की मुद्रा में बोल उठा, “अरे चंदर! कहाँ जा रहे हो? हारे हुए खिलाड़ी! काहे, मुंह काहे लटकाए हुए हो? चंदर के मुंह से धीरे से निकला, “ कर्फ्यू” जगदीप हँसते हुए बोला, “हाँ यार बड़ी मुश्किल से एक छुट्टी मिली है...देखो यार! कर्फ्यू दो चार दिन और चल जाये तो मज़ा आ जाये!” चंदर खुले मुंह से उसे ताकता रह गया और वो तेज़ी से कदम भरते हुए सुनसान गली से गायब हो गया| सूनी गली...शून्य में निहारती चंदर की सूनी आँखें... ज़हन में विचारों का कर्फ्यू...
---विजय शुक्ल बादल

Saturday, February 11, 2017

एक मुट्ठी में शाम इक में सहर रखता है।
बिना निग़ाहों के ही सब पे नज़र रखता है।।

वक़्त से सीख लो ऐ दोस्त! बदलने का सबक़,
वक़्त ख़ुद को भी बदलने का हुनर रखता है।।

लोग कहते हैं कि आवाज़ तक नहीं होती, 
उसकी लाठी में वो गज़ब का असर रखता है।।

ऐसे बन्दे पे बरसती हैं बरक़तें उसकी,
ज़हनोदिल में जो उसे आठों पहर रखता है।।