प्रीति न कीजिए पंछी सी, पेड़ सूखे उड़ जाय!
प्रीति कीजिए मीन सी, जल सूखे मर जाय!!
– संत कबीरदास
प्रेम भावनाप्रधान होता है तो कवि द्वारा भावातिरेक में कही गई ये कर्णप्रिय बात हृदय को रोमांचित तो करती ही है! किंतु भावना में बहकर यदि आप मात्र शाब्दिक अर्थ में उलझ गए और भावुकता में कोई दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय ले बैठे तो यह कवि और कविता, दोनों के साथ अन्याय हो जायेगा! तो सर्वप्रथम यह तथ्य समझने जैसा है कि पंछियों–मछलियों तथा मनुष्य में बुद्धितत्व का आधारभूत अंतर होता है; यही अंतर मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ भी बनाता है! मनुष्य को पशु पंक्षियों के जीवन व्यवहार से सीख लेनी ही चाहिए लेकिन भावना में बहकर मनुष्य द्वारा निर्णयन प्रक्रिया में पशु पक्षियों जैसा व्यवहार करने लग जाने से तो मनुष्यत्व के साथ–साथ जीवन भी खतरे में पड़ सकता है! अस्तु, भावुकता में नहीं मनुष्य होकर विवेकशील मनुष्य जैसा व्यवहार ही उचित है!
प्रश्न 1. प्रेम से विलग भावनाविहीन मनुष्य का जीवन भी कोई जीवन है? बिना भावना जीवन का क्या औचित्य?
नि:संदेह, मनुष्य के जीवन में प्रेम, ईर्ष्या आदि भावनाओं का इतना महत्व है कि बिना भावनात्मक जुड़ाव के सामान्य मनुष्य जीवन की परिकल्पना भी असंभव लगती है! तथापि समझने की बात है की भावनापूर्ण होने और भावनाओं में बहने में अंतर है! यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कई अन्य प्राणी भावना से प्रेरित होकर प्रत्येक क्रिया की मात्र यंत्रवत प्रतिक्रिया देते हैं! सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही हर क्रिया की प्रतिक्रिया देने से पूर्व निर्णयन प्रक्रिया से गुजरता है और सिर्फ भावना में बहकर यंत्रवत नहीं बल्कि बुद्धि विवेक का उपयोग कर सोच समझकर ही व्यवहार कर पाता है! इसलिए आप भावनाओं को जीभर जिएं किंतु क्योंकि आप मनुष्य मनुष्य रूप में जन्मे हैं इसलिए मैं समझता हूं, आप भावावेश में पशु पक्षियों की भांति यंत्रवत नहीं अपितु स्वयमेव मनुष्योचित विवेकपूर्ण व्यवहार करना ही उचित समझेंगे!
प्रश्न: 2. प्रेम सौंदर्यबोध कराता है!बिना सौंदर्य बोध के तो मनुष्य का जीवन नीरस हो जायेगा?
सौंदर्यबोध क्षमता समस्त प्राणियों में मनुष्यमात्र को ही उपहार स्वरूप मिली हैं! बिना प्रेम सौंदर्यबोध संभव ही नहीं! किसी व्यक्ति विशेष से प्रेम, प्रेम का संकुचित स्वरूप है! विस्तृत अर्थ में तो हृदय में प्रेम विकसित हो जाने पर मात्र एक व्यक्ति नहीं अपितु संसार के कण–कण के प्रति प्रेम की धार बहने लगती है! संकुचित प्रेम से उपजा सौंदर्यबोध केवल प्रिय व्यक्ति/ वस्तु/ दृश्य के प्रति ही प्रशंसा भाव उत्पन्न कर सकता है। संकुचित प्रेम का यह मूल दोष है कि यह प्रेमी/ प्रेयसी को असुंदर प्रेयसी/ प्रेमी में भी सौंदर्यबोध की प्रतीति कराता है! किसी शायर के भावातिरेक का स्तर तो देखिए ज़रा:
“दिल आया गधी पर तो परी की क्या बिसात!” अर्थात अगर किसी का गधी से प्रेम हो जाए तो उसके समक्ष स्वर्ग अप्सरा का सौंदर्य भी कुछ नहीं! तो संकुचित प्रेम से उपजे ऐसे सौंदर्यबोध से तो सौंदर्यबोध का न होना ही अच्छा है! जब संकुचित प्रेमभाव से उपजे सौंदर्यबोध से वशीभूत तुलसी जैसे वेद–शास्त्र पारंगत युवक को पत्नी रत्नावली के शारीरिक सौंदर्य में आसक्ति के चलते सांप और रस्सी के अंतर तक का बोध नहीं रहा तो सामान्य जन की क्या बिसात! कदाचित ऐसे ही भ्रामक सौंदर्यबोध के चलते ही "प्यार अंधा होता है" जैसे कथन प्रचलन में आए! वही तुलसी जब व्यक्ति विशेष के प्रति संकुचित प्रेम से निकलकर सम्पूर्ण जगत के प्रति विस्तृत प्रेम को हृदय में विकसित कर लेते हैं तो उनके सौंदर्यबोध का स्तर देखिए, उन्हें कण–कण में अपने आराध्य सियाराम के दर्शन होते हैं!
"सीयराममय सब जग जानी!
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी!!"
इसलिए मैं समझता हूं, व्यक्तिनिष्ठ संकुचित प्रेम से उत्पन्न भ्रामक सौंदर्यबोध के स्थान पर वस्तुनिष्ठ विस्तृत प्रेम से उत्पन्न सौंदर्यबोध से संसार अधिक सुंदर प्रतीत हो सकता है!
प्रश्न: 3 भावहीन मनुष्य की तुलना तो पत्थर तक से कर दी गई है! ऐसे में भावना के आधार पर निर्णय लेना गलत और बुद्धि के आधार पर तार्किक निर्णय सही यह कहना सही कैसे हुआ?
इस संबंध में डा० विकास दिव्य कीर्ति सर का यह उत्तर हर विवेकशील व्यक्ति के लिए विचारणीय है:
आप किसी व्यक्ति के प्रति भावना में बहकर अल्पकालिक प्रभाव डालने वाले जीवन के छोटे–मोटे निर्णय ले सकते हैं किंतु जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करने वाले दीर्घकालिक महत्वपूर्ण निर्णय बुद्धि–विवेक का पूर्ण सदुपयोग करके ही लिए जाने चाहिए! जैसे आपका/ आपकी कोई दोस्त आग्रह करते हुए कहे, "मेरी खुशी के लिए क्या तुम मेरे साथ फिल्म देखने के लिए अपने 3 घंटे भी नही दे सकते/ सकती?" यह जानते हुए भी कि आप के समय की बरबादी होगी फिर भी आप भावुक होकर कहें, "मेरे दोस्त, तुम्हारे लिए 3 घंटे क्या जिंदगी हाजिर है!" तो ठीक है इतने भावुक निर्णय से संभव है कि निरंतर पढ़ाई से उकताया आपका मन भी थोड़ा बहल जाये और तरोताज़ा मन से आप आपकी लक्ष्यप्राप्ति में हुए थोड़े से नुकसान की अतिरिक्त मेहनत से भरपाई कर ले जाएं! लेकिन कल्पना कीजिए कि वही दोस्त आकर यह कहे, "मेरी खुशी के लिए क्या तुम मुझसे शादी भी नहीं कर सकते/ सकती?" अब अगर भावुकता में बहकर आपने उसी अंदाज़ में यह कहा, "मेरे दोस्त, तुम्हारे लिए एक जीवन तो क्या सौ जीवन हाजिर हैं!" तो सब चौपट समझो! तो बात समझने की यह है कि दीर्घकालिक प्रभाव और दूरगामी परिणाम लाने वाले बाद वाले प्रस्ताव पर भावुकता में नहीं तार्किकता के आधार पर निर्णय लेने में ही समझदारी है!
प्रश्न:4 लेकिन बिना कुछ सोचे विचारे तमाम प्राणी कितना प्रसन्न रहते हैं! क्या अत्यधिक गुणा–भाग करना ही मनुष्य के दु:ख का कारण है?
अति किसी भी कार्य की हो दुखदाई ही होगी! परंतु मनुष्य के दु:ख का कारण गुणा भाग करना नहीं बल्कि गुणा भाग न कर बिना सोचे समझे कार्य करना है! यह सत्य है कि ज्ञान बुद्ध जनों को इस नश्वर संसार की निस्सारतामें व्याप्त दुःख का बोध कराता है! निस्संदेह, अज्ञान संसारिक संसाधनों में सुख ढूंढ लेने में सक्षम है, ठीक वैसे ही जैसे सुअर कीचड़ में भी परमस्वाद तत्पश्चात परमसुख की अनुभूति कर सकता है! पर मनुष्य का दुर्भाग्य है कि वह चाहे भी तो कीचड़ में परमस्वाद प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे कीचड़ की वस्तुस्थिति का बोध है! बोधिसत्व सिद्धार्थ महलों में सुख ढूंढ ही नहीं सकते थे! परंतु भावना के वशीभूत अज्ञानी जन सांसारिक संसाधनों में ही सुख ढूंढने का प्रयास बारंबार करते हैं, क्षणिक सुख के भ्रमजाल में बारंबार दु:खी होते रहते हैं! यदि विवेकवान मनुष्य बिना भावना में बहे, सोच समझकर कार्यव्यवहार करे, तो प्रत्येक संभावित अवश्यंभावी दु:ख के प्रभाव को न्यूनतम करना संभव है!
प्रश्न: 5. क्या इसका अर्थ यह हुआ कि दु:ख के इस संसार में सुख पाना है तो सभी को सांसारिकता छोड़ सन्यासी हो जाना होगा?
नवविवाहिता पत्नी और नवजात शिशु को छोड़कर जाते समय चाहते हुए भी सिद्धार्थ अंतिम बार राहुल का मुंह देखने का साहस नहीं जुटा सके। भय था कि कहीं बाल सौंदर्य देखकर पुत्रमोह प्रबल हो उठा तो? कहीं यशोधरा जग गई तो? घर संसार छोड़ना सरल नहीं! बुद्ध हो जाना! यह तो बिरले घटित होने जैसी घटना है! तथागत बुद्ध ग्रहत्याग की कठिनाई से भलीभांति अवगत थे, इसीलिए उन्होंने गृहस्थों के लिए और भिक्षुओं के लिए पृथक व्यवस्था दी! जो लोग गृहत्याग में अक्षम हैं, वह गृहस्थरूप में ही बोधि साधना कर सांसारिक दुःख से बचने का उपक्रम कर सकते हैं। किंतु गृहस्थों के मन में साधना की दिशा में भिक्षुओं की भांति साधना के सब जतन न कर पाने के अहसास के चलते एक न्यूनता का भाव आना स्वाभाविक है। इस मामले में गृहस्थों के लिए कबीर और नानक का दिखाया मार्ग अत्यंत सहज एवं चिर सुखदाई है। सब में रमते हुए भी बस यह सुरति अर्थात स्मृति रखना कि यहां कुछ भी चिर स्थाई नहीं, सब नश्वर है! सब कुछ करते हुए भी कर्ताभाव न रखना! कर्ताभाव ही मन में परिणाम की अपेक्षा उत्पन्न करता है। परिणाम मनचाहे न आने पर दु:ख होना अवश्यंभावी है! हर कार्य उसी एक को समर्पित करते चलने वाले कर्ताभाव से मुक्त व्यक्ति को संसार का कोई दुःख छू नहीं सकता, उसके समक्ष प्रत्येक परिणाम, व्यक्ति अथवा वस्तु सुख प्राप्ति का ही माध्यम है! विस्तृत प्रेम हृदय में धारण कर संसार में सब कुछ करते हुए, यहां तक कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रेम में आकंठ डूबते हुए भी, हर पल इस अनुभव की भी निस्सारता का ज्ञान/भान/सुरति/सुमिरन रखना, इस नश्वर संसार में जीवन पर्यंत और पश्चात चिरकालिक सुख देने वाला है! कबीर ने उक्त पंक्तियों में जिस प्रीति की बात की है, वह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति संकुचित प्रीति नहीं, वह तो उसी एक परमात्मा के प्रति वही विस्तृत प्रीति है जिस परमात्मा के बिना जीवन जल बिन मछली की ही भांति संभव नहीं।
©विजय शुक्ल बादल